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________________ १८ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख पूर्व में कहा जा चुका है, अपने वरिष्ठ शिष्य आचार्य विशाख को गणाधिपति घोषित कर उन्हें दिगम्बरत्व की सुरक्षा तथा जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के लिये ससंघ दक्षिण के सीमान्त तक अर्थात् तत्कालीन पाण्डय, चेर, चोल, सत्यपुत्र, केरलपुत्र एवं ताम्रपर्णी (सिंहल) के राज्यों में विहार करने का आदेश दिया था। यह तथ्य है कि आचार्य विशाख के ससंघ विहार करने के बाद आचार्य भद्रबाहु ने अपने अन्तिम समय में स्वयं एकान्तवास कर सल्लेखना धारण करने का निर्णय किया, किन्तु, नवदीक्षित मुनिराज चन्द्रगुप्त (पूर्व मगध-सम्राट) अपनी भक्ति के अतिरेक के कारण आचार्य भद्रबाहु की वैयावृत्ति हेतु उन्हीं की सेवा में उनके पास रह गये। यहाँ एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आचार्य भद्रबाहु ने प्राकृतिक विपत्तिकाल में दिगम्बरत्व की सुरक्षा के लिए दक्षिण भारत ही क्यों चुना ? वे अन्यत्र क्यों नहीं गए ? मेरा जहाँ तक अध्ययन है, जैन-साहित्य में एतद्विषयक उसके साक्ष्य-संदर्भ अनुपलब्ध हैं। किन्तु मेरी दृष्टि से इसके दो कारण हो सकते हैं- (१) मगध के साथ-साथ सम्भवतः समग्र उत्तर भारत दुष्काल की चपेट में था। और, (२) दक्षिण-भारत में आचार्य भद्रबाहु के दीर्घ-पूर्व भी जैनधर्म का प्रचुर मात्रा में प्रचार था। __ बौद्धों के इतिहास-ग्रन्थ "महावंश' (जिसका रचनाकाल सन् ४६१-४७६ है) में ई.पू. ५४३ से ई.पू. ३०१ तक के सिंहल-देश के इतिहास का वर्णन किया गया है। उसमें ई.पू. ४६७ की सिंहल (वर्तमान श्रीलंका) की राजधानी अनुराधापुरा के वर्णन-क्रम में बतलाया गया है कि वहाँ के अनेक गगनचुंबी भवनों में से एक भवन, तत्कालीन राजा पाण्डुकाभय ने वहाँ विचरण करने वाले अनेक निर्ग्रन्थों के लिए बनवाकर उन्हें भी समर्पित किया था। महावंश के उक्त संदर्भ से यह स्पष्ट है कि ई.पू. ५ वीं सदी के आसपास सिंहल देश में निर्ग्रन्थ धर्म अर्थात् जैनधर्म का अच्छा प्रचार था और कुछ चिन्तक-विद्वानों का यह कथन तर्कसंगत भी लगता है कि कर्नाटक, आन्ध्र, तमिल एवं केरल होता हुआ ही जैनधर्म सिंहल देश में प्रविष्ट हुआ होगा। तमिल-जनपद के मदुराई और रामनाड् में ब्राह्मी लिपि में महत्वपूर्ण कुछ प्राचीन प्राकृत-शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। उन्हीं के समीप जैन-मन्दिरों के अवशेष तथा तीन-तीन छत्रों से विभूषित अनेक पार्श्वमूर्तियाँ भी मिली हैं। इन प्रमाणों के आधार पर सुप्रसिद्ध पुराविद् डॉ. सी.एन.राव का कथन है २३ कि-"ई.-पू. चतुर्थ-सदी में जैनधर्म ने तमिल के साथ-साथ सिंहल को भी विशेष रूप से प्रभावित किया था। उनके कथन का एक आधार यह भी है कि-"सिंहल देश में उपलब्ध गुहालेखों की अक्षर-शैली और तमिलनाडु के पूर्वोक्त ब्राह्मी-लेखों के अक्षरों में पर्याप्त समानता है।" २३. दक्षिण भारत में जैनधर्म (पं.कैलाशचन्द्र जी शास्त्री), पृ. ३-४
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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