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________________ १४ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख और बौद्ध-आगमों की भी प्रारम्भिक परम्परा यही रही थी । अतः वह ज्ञान भी (श्रीगुरु मुखस्य ज्ञानम् अर्थात्) कण्ठ-परम्परा से जीवित रहा। यही कारण है कि जैनागमों को "श्रुत", वैदिकागमों को "श्रुति" तथा बौद्धागमों को "सुत्त" कहा गया । किन्तु जैनेतिहास के अनुसार उक्त गुरु-शिष्य अथवा कण्ठ- परम्परा, जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, अधिक काल तक नहीं चल सकीं । श्रमण संस्कृति के प्रधान केन्द्र-: द्र - मगध में ई. पू. चतुर्थ- सदी के आसपास द्वादशवर्षीय भीषण अकाल पड़ा धीरेधीरे प्रायः समस्त उत्तर-भारत उसकी चपेट में आ गया। अतः अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु ने १२००० साधु-संघ, पूर्वागत - श्रुतज्ञान-परम्परा तथा श्रमण संस्कृति की सुरक्षा हेतु अपने नवदीक्षित शिष्य-मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (प्रथम) के साथ दक्षिण भारत की ओर विहार किया, जबकि उनके संघ के स्थूलभद्रादि आचार्य पाटलिपुत्र में ही रह गए 1 आचार्य भद्रबाहु ने मगध से लेकर कटवप्र (वर्तमान श्रवणबेलगोला, कर्नाटक) तक के मार्ग में परम्परा प्राप्त ज्ञान का सर्वत्र प्रवचन किया तथा कटवप्र में वृद्धावस्था के कारण विश्राम लेकर उन्होंने आचार्य विशाख के नेतृत्व में समस्त संघ को आगे भेज दिया, जो पाण्ड्य, चेर, चोल, सत्यपुत्र, केरलपुत्र देशों में होता हुआ सिंघल (वर्तमान श्रीलंका) देश तक पहुँचा और वहाँ जैनधर्म की प्रभावना की । श्वेताम्बर-परम्परा श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार दुष्काल की समाप्ति के बाद आचार्य स्थूलिभद्र ने परम्परा-प्राप्त ज्ञानराशि के बिखरने की आशंका से उसकी सुरक्षा हेतु पाटलिपुत्र में एक वाचना का आयोजन किया किन्तु दुर्भाग्य से उसमें संग्रहीत ज्ञानराशि सुरक्षित न रह सकी। उसके बाद मथुरा में भी क्रमशः दो बार वाचनाएँ कर पूर्वागत ज्ञानराशि का संग्रह किया गया, किन्तु दुर्भाग्य से वे भी सुरक्षित न रह सकीं । अन्ततः भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के लगभग ६०० वर्ष बाद (अर्थात् ईस्वी सन् ४५३ के आसपास) बलभी (गुजरात) में पुनः एक वाचना का आयोजन कर उसमें आगमों का संग्रह एवं लेखन कार्य किया गया। दीर्घान्तराल के बाद उनकी प्रतिलिपियों की भी प्रतिलिपियों में विस्मृति, वैचारिक - विभिन्नता अथवा अन्य कारणों से पाठ - परिवर्तन आदि के हो जाने के कारण दिगम्बरों ने उन्हें अप्रामाणिक कहकर उनकी मान्यता को सादर अस्वीकार कर दिया २० । दिगम्बर- परम्परा दिगम्बर-परम्परा के उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार आचार्य गुणधर तथा अष्टांग १६. दे. आचार्य भद्रबाहु चाणक्य चन्द्रगुप्त कथानक ( रइधू कृत) श्री गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान नरिया, वाराणसी (सन् १९८२) द्वारा प्रकाशित पृ. २७-२८ । २०. - २१. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग १ पृ. २८ तथा षट्खण्डागम धवला टीका १/१/१ पृ. ६१
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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