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________________ १२ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख अतः यहाँ अनुमान ही प्रमाण माना जा सकता है, कि आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त, भूतबलि एवं कुन्दकुन्द ने लेखन के लिए तत्कालीन सहज उपलब्ध भोजपत्रों अथवा ताड़पत्रों का तथा उनमें ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया होगा, किन्तु वे मूल पाण्डुलिपियाँ अधिकांशतः तो कालकवलित होती गई और वर्तमान में अवशिष्ट पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियों की सम्भवतः ५वीं - ६वीं या उसके बाद की पीढ़ी की प्रतिलिपियाँ मात्र ही हमें उपलब्ध हैं। अर्धमागधी आगमों की टीकाओं में उल्लिखित विविध लिपियाँ (Scripts) अर्धमागधी आगम साहित्य के टीकाकारों ने समकालीन प्रचलित भारतीय लिपियों के नामों के उल्लेख कर उनके विश्लेषणात्मक अध्ययन के लिये अच्छी सामग्री प्रस्तुत की है, किन्तु उनकी वे टीकाएँ प्रायः आठवीं सदी ईस्वीं के बाद की हैं। विशेषावश्यकभाष्य में १८ प्रकार की लिपियों के उल्लेख मिलते हैं, जिनमें से जवणी ( यवनी) तुरुक्की (तुरुष्कदेशीया) पारसी जैसी लिपियाँ खरोष्ठी से सम्बन्धित हैं और जिनका परवर्त्ती विकसित रूप अरबी, फारसी एवं उर्दू लिपि में दिखाई देता है। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारत में पैर जमाते ही उन्होंने अपने प्रशासनिक प्रभाव को प्रभावी बनाने हेतु न केवल अपनी भाषा, अपितु लिपि का भी ऐसा प्रचार किया कि भारतीय इतिहासकारों को भारतीय-भाषा एवं लिपियों में उसकी भी गणना करनी पड़ी। उक्त १८ लिपियों के नाम इस प्रकार हैं- (१) हंसलिपि (२) भूतलिपि (३) यक्षी (४) राक्षसी (५) ऊर्ध्वं (६) जवणी ( यवनी) (७) तुरुक्की (८) कीरी (६) सिन्धी (१०) द्राविडी (११) मालवी (१२) नटी (१३) नागरी (१४) लाडलिपि (१५) पारसी (१६) अनिमित्ती ( १७ ) चाणक्की एवं (१८) मूलदेवी । इन लिपियों में भी सम्भवतः एकाध को छोड़कर वर्तमान में जैन पाण्डुलिपियाँ अनुपलब्ध हैं १७ । सुप्रसिद्ध ललित-विस्तरा के अनुसार ६४ लिपियाँ निम्न प्रकार हैं ८ (१) ब्राह्मी, (२) खरोष्ठी, (३) पुष्करसारी, (४) अंगलिपि, (५) बंगलिपि, (६) मगधलिपि, (७) मागधलिपि, (८) मनुष्यलिपि, (६) अंगुलीयलिपि (१०) शकारिलिपि, (११) ब्रह्मबल्ली लिपि, (१२) द्राविडीलिपि, (१३) कनारिलिपि, (१४) दक्षिणलिपि, (१५) उग्रलिपि, (१६) संख्यालिपि, (१७) अनुलोमलिपि (१८) ऊर्ध्वधनुलिपि, (१६) दरदलिपि, (२०) खास्यलिपि, १७. (क) दे. गाथा सं. ४६४ की टीका (ख) समवायांगसूत्र (१८वॉ समवाय) में कुछ परिवर्तनों के साथ निम्नप्रकार की लिपियों के नाम प्रस्तुत किए गए हैं (१) बंभी (२) जवणालिया (३) दोसाउआ (४) खरोट्टिआ (५) पुक्खरसारिआ (६) पहाराअइआ (पहराइआ ) (७) उच्चतरिआ (८) अक्खरपुट्ठिआ (६) भोगवयता (१०) वेणतिआ ( ११ ) णिण्हइया (१२) अंकलिवी (१३) गणिअलिवी (१४) गंधव्वलिवी (भूयलिवी) (१५) आदंसलिवी (१६) माहेसरीलिवी (१७) दामिलीलिवी एवं (१८) पालिंदीलिवी । १८. दे. दसवाँ अध्याय
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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