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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख अभिहित किया गया। इस "पाण्डुलिपि" शब्द में दो पदों का मेल है-पाण्डु एवं लिपि, जिसका अर्थ है-पाण्डुर-वर्ण वाले आधार अथवा उपकरण-पाषाण अथवा पत्र पर किन्हीं मान्य-संकेतों के द्वारा अपेक्षित ज्ञान को किसी विशेष कठोर नुकीले उपकरण (लेखनी) के द्वारा उत्कीर्णित कर अथवा किसी नरम लेखनी द्वारा किसी विशेष रंगीले तरल पदार्थ द्वारा लिखकर उसे सुरक्षित रखना। इस प्रकार भारत में पाण्डुलिपियों का प्रादुर्भाव हुआ। गवेषकों के अनुसार उसका काल अनुमानतः ईसा-पूर्व पाँचवी सदी के आसपास माना जा सकता है। पाण्डुलिपियों की लेखनोपकरण - सामग्री __ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि पाण्डु अथवा पाण्डुर-वर्ण (पीताभ-धवल) वाला प्रारम्भिक आधार क्या रहा होगा ? इस विषय पर क्या-क्या गवेषणाएं हुई, उनकी सम्पूर्ण जानकारी तो उपलब्ध नहीं, किन्तु हमारी दृष्टि से पाण्डुलिपि तैयार करने का प्रारम्भिक भारतीय आधार पाषाण था। ईसा-पूर्व पाँचवी सदी का वडली (अजमेर) शिलालेख तथा ईसा-पूर्व तृतीय सदी के सम्राट अशोक तथा ई०-पू० दूसरी सदी का खारवेल-शिलालेख उसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। खारवेल-शिलालेख भुवनेश्वर (उड़ीसा) की उदयगिरि-खण्डगिरि पहाड़ी पर स्थित हाथीगुम्फा में उपलब्ध हुआ है। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार "हाथीगुम्फा का गठन अति असाधारण है। उसमें कोई निर्दिष्ट आकार नहीं है। इसमें हाथी के चार प्रकोष्ठ और स्वतंत्र बरामदा भी था । गुफा का भीतरी भाग ५२ फीट लम्बा और २८ फीट चौड़ा है। द्वार की ऊँचाई १११/२ फीट है। उसी में खारवेल का विश्व-विख्यात् उक्त शिलालेख मिला है। इस शिलालेख में उनका जीवन-चरित्र लिपिबद्ध हुआ है। समय-समय पर यह शिलालेख असम्पूर्ण के समान बोध देता है।" (दे. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका ८/३ सन् १६२८) तत्पश्चात् लेखनोपकरण सामग्री के विकास की परम्परा चलती रही और (१) भोजपत्र, (२) ताड़पत्र, (३) कागज, (४) कपड़ा, (५)काष्ठ-पट्टिका, (६)चमड़ा, (७) ईंट, (८) सोना, (६) ताँबा, (१०) पीतल, (११) चाँदी, (१२) काँसा, (१३) लोहा तथा उनके मिश्रण से निर्मित उपकरणों में से कुछ उपकरण, हमारे आगम-शास्त्रों, मन्त्रों और ज्ञान-विज्ञान तथा इतिहास, संस्कृति एवं सामाजिक-विचारों को विस्तृत अथवा संक्षिप्त रूप में लिपिबद्ध करने के ठोस साधन बनें। उक्त सामग्री को देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि पत्थरों तथा धातुओं पर लिखित सामग्री को पाण्डुलिपि कैसे माना जाये ? इसके समाधान में केवल यही कहा जा सकता है कि तत्कालीन सहज उपलब्ध प्राकृतिक पाण्डुर-वर्ण अथवा उसके समकक्ष वर्ण वाली वस्तु पर अंकित, आधार-सामग्री को पाण्डुलिपि मान लिया गया। भले ही वह पत्थर की हो अथवा पेड़ों की छाल या पत्तों की। उस समय उसका पाण्डुलिपि के रूप में जो नामकरण हुआ, यह ऐसा रूढ़ होता चला गया कि उक्त सभी तो पाण्डुलिपि कहलाती ही रहीं, वर्तमान में प्रेस में छपने के लिये दी जाने वाली प्रेस-सामग्री या
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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