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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य धरोहर जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख पाण्डुलिपियों का महत्वः पाण्डुलिपियाँ (अर्थात् अप्रकाशित प्राचीन हस्तलिखित पोथियाँ अथवा ग्रन्थ) किसी भी समाज एवं देश की अमूल्य धरोहर मानी गई हैं क्योंकि वे उनके दीर्घ तपस्वीसाधक एवं चिन्तक-आचार्य-लेखकों द्वारा अनुभूत और परम्परा-प्राप्त ज्ञान-गरिमा की प्रतीक होती हैं। साथ ही, उनके निरन्तर स्वाध्याय, पठन-पाठन, मनन एवं चिंतन की प्रवृत्ति, मानसिक एकाग्रता, आध्यात्मिक उत्थान, बौद्धिक-विकास, सांस्कृतिक उन्नयन, कलात्मक अभिरुचि और साहित्यिक-प्रतिभा आदि की परिचायिका भी होती हैं। यही नहीं, उनके आदि एवं अन्त में उपलब्ध प्रशस्तियों (Eulogies) एवं पुष्पिकाओं (Colophons) में पूर्ववर्ती अथवा समकालीन इतिहास, संस्कृति, समाज एवं साहित्य तथा साहित्यकारों आदि के उल्लेखों के कारण वे देश एवं समाज के विविध पक्षीय इतिहास के लेखन तथा राष्ट्रिय अखण्डता और भावात्मक एकता (National Unity and Emotional Integration) की प्रतीक भी होती हैं । राष्ट्रिय इतिहास एवं संस्कृति को सर्वांगीण बनाने में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इनके अतिरिक्त भी, उनमें लेखन-सामग्री में प्रयुक्त विविध उपकरण, (यथा-पत्र, कम्बिका, डोरा, ग्रन्थि, लिप्यासन, छन्दण, मसी, लेखनी आदि) एवं लिपि की विविध शैलियाँ, चित्रकला में प्रयुक्त विविध रंग और उनकी कलात्मक अभिरुचि की अभिव्यक्ति तथा उनके विकास की दृष्टि से भी उनका ऐतिहासिक महत्व है। __ जैन-परम्परा में जिनवाणी को सुरक्षित रखने का मूल आधार होने के कारण पाण्डुलिपियों को प्रारम्भ से ही पूज्यता तथा विशेष आदर-भाव मिला है। उन्हें प्राणों से भी प्यारी और पवित्र धरोहर मानकर जैनों ने अपने तीन दैनिक आराध्यों-देव, शास्त्र एवं गुरु में से विविध पाण्डुलिपियों के रूप में सुरक्षित शास्त्रों को भी समान रूप से पूज्य मानकर उनकी सुरक्षा के लिये प्रारम्भ से ही अनेकविध प्रयत्न किये हैं। इसके लिये आन्ध्र, कर्नाटक, राजस्थान, विदर्भ एवं मालवा के लोमहर्षक उदाहरण स्मरणीय हैं। पाण्डुलिपिः उसकी आवश्यकता, प्रादुर्भाव और विकास प्राकृतिक विपदाओं, जनसंख्या वृद्धि तथा विदेशी आक्रान्ताओं के कारण सामाजिक जीवन में अस्तता-व्यस्तता-जन्य सांसारिक जटिल समस्याओं के कारण उत्पन्न मानसिक अस्थिरता और उसके कारण विस्मृति के उत्पन्न होने की आशंका से कण्ठ-परम्परा द्वारा प्राप्त ज्ञान को सुरक्षित रखने की आवश्यकता का जब अनुभव किया गया, तब उसे जिन प्रयत्नसाध्य उपलब्ध उपकरणों पर लिपिबद्ध किया गया, उसे "पाण्डुलिपि" के नाम से
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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