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________________ वयणरयणपूरोपावधूलीसमीरो, कणयणियरगोरो दुट्ठकम्मारिसूरो। कलुसदहणधीरो पाडिदाणंगवीरो, जयदुजगदि णिच्चंवड्ढमाणो जिणिंदो॥8॥ अन्वयार्थ-(वयणरयणपूरो) वचन रत्नों के पूर (पावधूलिसमीरो) पापरूपी धूली के लिए समीर (कणयणियर गोरो) स्वर्ण समूह के समान गौर वर्ण वाले (दुट्ठ कम्मारि सूरो) दुष्ट कर्मरूप शत्रुओं के लिए शूर (कलुसदहणधीरो) कलुषता के दहन में धीर (पाडिदाणंगवीरो) कामरूपी वीर को नष्ट करने वाले (वड्ढमाणो जिणिंदो) वर्धमान जिनेन्द्र (जगदि) जगत में (जयदु) जयवंत होवें। अर्थ-वचन रत्नों के पूर, पापरूपी धूली के लिए वायु समान, स्वर्णसमूह के समान गौर वर्ण वाले, दुष्टकर्मरूपी शत्रुओं के लिए शूर योद्धा, रागादि कलुषता के जलाने में धीर, कामदेवरूपी वीर को नष्ट करने वाले वर्धमान जिनेन्द्र जगत में जयवंत होवें। सव्व-कल्लाणकत्तारं हत्तारंदुक्खकारणं। पणमामि महावीरं तित्थयरं च अंतिमं ॥9॥ अन्वयार्थ-(सव्वकगाण-कत्तारं) सर्व कल्याणकर्ता (हत्तारं-दुक्खकारणं) जन्मादि दुःख कारणों के हर्ता (अंतिम) अंतिम (तित्थयरं) तीर्थंकर (महावीरं) महावीर स्वामी को (पणमामि) प्रणाम करता हूँ। अर्थ-सब जीवों का कल्याण करने वाले, जन्म-जरा-मृत्यु आदि दोषों के कारण का नाश करने वाले, चौबीस तीर्थंकरों में अंतिम तथा श्रेष्ठ तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी को मैं प्रणाम करता हूँ। 84 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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