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________________ अन्वयार्थ-(णाणं सुदंसण चरित्त तवं च वीरं आचार-गुत्ति-दसलक्खणधम्म-पुण्णं) ज्ञान, सुदर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों से युक्त, गुप्ति व दशलक्षणधर्म से पूर्ण, (सिस्साण संगह-सुणिग्गह सेट्ठ-बुद्धिं) शिष्यों के संग्रहनिग्रह में श्रेष्ठ बुद्धि वाले (कप्पादि-णिट्ठ-विमलं) कल्पादि निष्ट मलरहित (सूरिं पणमामि) आचार्य को प्रणाम करता हूँ। अर्थ-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों से युक्त, गुप्ति व उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्म से पूर्ण, शिष्यों के अच्छी तरह संग्रह-निग्रह में श्रेष्ठ बुद्धि वाले आचेलक्य आदि कल्पों के आचरण में निष्ट, दोष रहित आचार्यों को मैं प्रणाम करता हूँ। सज्झाय-वायण-सुपुच्छण-आमणाए, धम्मोवदेस-अणुपेहण-भावणाए। जुंजेदि जो स-पर-बारस-अंग सत्थे, तं पाढगं समणसीहमहं णमामि॥4॥ अन्वयार्थ-(सज्झाय-वायण-सुपुच्छण-आमणाए) स्वाध्याय, वाचना, पृच्छना, आम्नाय (धम्मोवदेस-अणुपेहण-भावणाए) धर्मोपदेश, अनुप्रेक्षण भावना में (वा) अथवा (बारस-अंग सत्थे) द्वादशांग के शास्त्रों में (जो) (स-पर) स्व-पर को (जुंजेदि) जोड़ते हैं (तं) उन (समणसीह) श्रमणसिंह (पाढगं) उपाध्याय को (अहं) मैं (णमामि) नमन करता हूँ। अर्थ-स्वाध्याय के वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय व धर्मोपदेश रूप पाँच भेदों में अथवा द्वादशांग रूप जिनवाणी के शास्त्रों की भावना में जो स्वयं को तथा अन्य साधुओं, जिज्ञासुओं को जोड़ते हैं, उन श्रमणसिंह उपाध्याय परमेष्ठी को मैं नमन करता हूँ। आसा-कसाय-विसयादु य विप्पमुत्तं, णाणं च झाण-अणुपेहण-णिच्चजुत्तं। आरंभ-संग-विरदं तव-भाव-पूदं, लीणं-सहाव पणमामि सु-साहुवग्गं॥5॥ अन्वयार्थ-(आसा-कसाय-विसयादु य विप्पमुत्तं) आशा, कषाय और विषयों से मुक्त (णाणं च झाण अणुपेहण णिच्चजुत्तं) ज्ञान-ध्यान व अनुप्रेक्षण में नित्य युक्त, (आरंभ-संग-विरदं) आरंभ-परिग्रह से विरक्त (तव-भाव-पूदं) तप की भावना से पवित्र (लीणं-सहाव) स्वभाव लीन (सु-साहुवग्गं) श्रेष्ठ साधुवर्ग को मैं (पणमामि) प्रणाम करता हूँ। अर्थ-आशा, (इच्छा), क्रोधादि कषाय और इन्द्रिय विषयों की वासना से रहित, ज्ञान-ध्यान व अनुप्रेक्षाओं में नित्य ही जुड़े रहने वाले हैं, आरंभ-परिग्रह से रहित, तप की भावना से पवित्र और निज स्वभाव में लीन, श्रेष्ठ साधु-संघों को मैं प्रणाम करता हूँ। 72 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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