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________________ मंगल-पंचगं (मंगल - पंचक, बसन्ततिलका छन्द) - घादी चदुक्क खविदूण कढोर-कम्मं, णाणं च दंसण - सुहादि गुणे य पत्तं । अट्ठारसं सयल-दोस- विमुत्त- पुज्जं, देवाधिदेव - अरहंत - महं णमामि ॥1 ॥ - अन्वयार्थ- ( घादी चदुक्क खविदूण कढोर - कम्मं ) [ जो] घाति - चतुष्क कठोर कर्मों को नष्टकर ( णाणं दंसणं सुहादि) अनंतज्ञान दर्शन सुख आदि (गुणे य) गुण को (पत्तं) प्राप्त (अट्ठारसं सयल - दोस - विमुत्तं) समस्त अठारह दोषों से रहित (च) तथा (पुज्जं) जगत - पूज्य हैं [ उन] ( देवाधिदेव - अरहंतं) देवाधिदेव अरहंत को (अहं णमामि ) मैं नमन करता हूँ । अर्थ- जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नष्टकर अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख व अनंतवीर्य इन चार चतुष्टयों को प्राप्त किया है, जो समस्त अठारह दोषों से रहित तथा जगतपूज्य हैं, उन देवाधिदेव अरहंत भगवान को मैं नमन करता हूँ । सम्मत्त - णाण- सुहुमे बलदिट्ठीजुत्ते, ओगाहणागुरुलहुत्तवबाध पुण्णे । णट्ठट्ठकम्म-णिय-सुद्धसरूव-पत्ते, णिच्चं णमामि किकिच्च - अणूव - सिद्धे ॥ 2 ॥ अन्वयार्थ- सम्मत्त - णाण- -सुहुमे बलदिट्ठीजुत्ते) सम्यक्त्व, ज्ञान, सूक्ष्मत्व, बल [वीर्य] दर्शन (ओगाहणागुरुलहुत्तवबाधपुणे) अवगाहना, अगुरुलघुत्व, अव्याबाध पूर्ण (णट्ठट्ठकम्म- णिय - सुद्धसरूव-पत्ते) अष्टकर्मों को नष्टकर निज शुद्ध स्वरूप को प्राप्त (किदकिच्च अणूव - सिद्धे) कृतकृत्य, अनूप सिद्धों को [ मैं ] (णिच्चं णमामि) नित्य नमन करता हूँ । - अर्थ – सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाधत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, सूक्ष्मत्व आदि गुणों से युक्त, ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों को पूरी तरह से नष्टकर निजस्वरूप को प्राप्त, कृतकृत्य, अनुपम सिद्धों को मैं नित्य नमन करता हूँ । ाणं सुदंसण-चरित्-तवं च वीरं, आचार-गुत्ति- दसलक्खण-धम्म-1 म- पुण्णं । सिस्साण संगह - सुणिग्गह सेट्ठ-बुद्धिं, कप्पादि-णिट्ठ-विमलं पणमामि सूरिं ॥3 ॥ मंगल - पंचगं :: 71
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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