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________________ भावार्थ-इस संसार में अपने शरीर का उपकार करना सुगम है, सरल है किन्तु दूसरों का उपकार कठिन माना जाता है। धर्म का आचरण दुर्लभ है और परमार्थ तो अत्यन्त दुर्लभ है। सफलता का सूत्र पढमो पुण्ण-वीसासो, संकप्पो सुदढो तहा। तदियो सददब्भासो, सहलो होदि माणुसो॥4॥ अन्वयार्थ-(पढमो पुण्ण-वीसासो) प्रथम पूर्ण विश्वास (संकप्पो सुदढो तहा) फिर संकल्प की दृढता (तदियो सददब्भासो) तीसरा सतत अभ्यास हो तो (माणुसो सहलो होदि) मनुष्य कार्य में सफल होता है। भावार्थ-सबसे प्रथम पूर्ण विश्वास फिर संकल्प की दृढ़ता फिर सतत अभ्यास हो तो मनुष्य किसी भी कार्य में सफल हो सकता है। जीवन की शोभा विजब्भासो य बालत्तं, जोव्वणं उजमेण हि। विवेगादो य वुड्ढत्तं, इह लोगे हि सोहदे॥5॥ अन्वयार्थ-(विजब्भासो य बालत्तं) विद्याभ्यास से बालपन (जोव्वणं उज्जमेण) उद्यम से यौवन (विवेगादो य वुड्ढत्तं) और विवेक से वृद्धपन (इह लोगे) इस लोक में (सोहदे) शोभा पाते हैं। ___ भावार्थ-विद्याभ्यास से बाल्यावस्था, उद्यमसे युवावस्था और विवेक से वृद्धपन-वृद्धावस्था की शोभा होती है। लोक उन्नतिकर सूत्र कहणादो कजं सेठें, सहिण्हुत्तं परोप्परं। मित्ती य जीवमत्तेसु, सुत्तं लोगुण्णदीकरं॥6॥ अन्वयार्थ-(कहणादो कज्ज सेठं) कहने से करना श्रेष्ठ है। (परोप्परं सहिण्हत्तं) परस्पर सहिष्णुता (मित्ती य जीवमत्तेसु) जीव मात्र में मैत्री भाव(ये) (लोगुण्णदीकर सुत्तं) ये लोक उन्नतिकर सूत्र हैं। भावार्थ-कहने की अपेक्षा करना श्रेष्ठ है। परस्पर मैत्रीभाव और सहिष्णुता ये लोकोन्नतिकर सूत्र हैं। शान्ति का सूत्र विरोधे वि विणोदप्पा, पमोदप्पा य सग्गुणे। कोहे वि णिरोहप्पा, संती फुरदि सव्वदो॥7॥ 336 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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