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________________ वयणसारो (वचनसार) मंगलाचरणम् वड्ढमाणं जिणंणत्ता, णाणादिगुण-संजुदं। वोच्छे वयणसारं च, लोगकल्लाण हेदुगं॥1॥ अन्वयार्थ-(णाणादिगुण संजुदं) ज्ञानादिगुणसहित (वड्ढमाणं जिणं णत्ता) वर्धमान जिनेन्द्र को नमस्कार करके (लोगकल्लाण हेदुगं) लोककल्याण हेतु (वयणसारं) वचनसार को (वोच्छे) मैं कहूँगा। भावार्थ-ज्ञानादिगुणों से सहित वर्धमान जिन को नमस्कार करके मैं अर्थात् भारतराष्ट्रविख्यात प्राकृताचार्य श्री सुनीलसागर महाराज महोदय लोककल्याणकारी वा विश्वजीवकल्याणकारी 'वचनसार' नामक अर्थात 'दिव्यध्वनिसार' नामक ग्रन्थ को संक्षिप्त रूपसे कहूँगा। उत्तरोत्तर दुर्लभता दुल्लहं माणुसत्तं हि, धम्मो जिणोवदेसिओ। दुल्लह्ये संजमो सुद्धो, मोक्खुवलद्धी दुल्लहा ॥2॥ अन्वयार्थ-(माणुसत्तं ) मनुष्यता(दुल्लहं) दुर्लभ है (धम्मो जिणोवदेसियं) जिनेन्द्र उपदिष्ट धर्म दुर्लभ है (संजमं सुद्धं दुल्लहं) शुद्धसंयम दुर्लभ है (च) और(मोक्खुवलद्धी दुल्लहा) मोक्ष की उपलब्धि बहुत दुर्लभ है। भावार्थ-मनुष्यता दुर्लभ है। उससे दुर्लभ है जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया मंगलमय जिनधर्म। उससे दुर्लभ है शुद्धसंयम और उससे दुर्लभ है मोक्ष प्राप्ति। परमार्थ अति दुर्लभ है देहत्थो सुगमो लोगे, परत्थो दुग्गमो मदो। धम्मत्थो दुल्लहो लोए, परमत्थो सुदुल्लहो ॥3॥ अन्वयार्थ-(देहत्थो सुगमो लोगे) लोक में देह का उपकार करना सुगम है (परत्थो दुग्गमो मदो) दूसरों का उपकार कठिन माना गया है (धम्मत्थो दुल्लहो) धर्मार्थ दुर्लभ है (परमत्थो सुदुल्लहो) परमार्थ अतिदुर्लभ है। वयणसारो :: 335
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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