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________________ अर्थ - हे देव ! जीवन व मरण में, सुख व दुःख में, पत्थर व स्वर्ण में, नगर व वन में, मित्र व शत्रु में, मैं ममत्वबुद्धि का त्याग करता हूँ और समता धारण करता हूँ। अन्तिम भावना पादारविंदं तव भो जिणिंद ! चित्ते मदीये चिट्ठदु हि ताव । बोही समाही परिणामसुद्धी, णिव्वाणलाहो खलु मे ण जाव ॥25॥ अन्वयार्थ - (भो जिणिंद) हे जिनेन्द्र ! (तब पादारविंदं) आपके चरणकमल (मदीयं) मेरे (चित्ते) चित्त में (ताव ) तब तक (चिट्ठदु) स्थित रहें (जाव) जब तक (मे) मुझे (बोही समाही परिणामसुद्धी णिव्वाणलाहो) बोधि समाधि, परिणामशुद्धि व निर्वाण लाभ (ण) न होवे | अर्थ - हे जिनेन्द्र ! आपके चरणकमल मेरे हृदय में तब तक स्थित रहें जब तक कि मुझे बोधि, समाधि, परिणामशुद्धि व निर्वाणलाभ अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति न हो जावे। । इति भावालोयणा समत्ता । । इस प्रकार आचार्य सुनीलसागर कृत भावालोचना समाप्त हुई । भावालोयणा :: 331
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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