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________________ अर्थ-हे देव! मेरा सभी जीवों में मैत्रीभाव, गुणाधिकजनों में प्रमोद (आदर) भाव, दीन-दुखियों में करुणा भाव और विपरीत प्रवृत्ति करने वालों में सदा मध्यस्थभाव बना रहे। निश्चय भावना चराचरा जे य पयत्था के वि, णत्थी ममं ते दुणिरंजणो हं। चेयण्णरूवो य रागादिहीणो, वण्णादिसुण्णो विचिणोमि णिच्चं॥22॥ अन्वयार्थ-(जे) जो (केवि) कोई भी (चराचरा) चर-अचर (पयत्था) पदार्थ हैं [ते] वे (ममं णत्थि) मेरे नहीं हैं (दु) अपितु (हं) मैं (णिरंजणो) निरंजन (चेयण्णरूवो) चैतन्य रूप (रागादिरहीणो) रागादि रहित (वण्णादि सुण्णो) वर्णादि रहित हूँ [ऐसे] (णिच्चं) नित्य (विचिणोमि) चिंतन करता हूँ। अर्थ-चराचर अथवा चेतन-अचेतन जो कोई भी पदार्थ हैं वे मेरे नहीं हैं अपितु मैं निरंजन चैतन्य रूप रागादि रहित, वर्णादि रहित आत्मा हूँ, ऐसा नित्य चिंतन करता हूँ। लोकपूजा आदि कल्याण के साधन नहीं हैं खादी य लाहो ण य लोगपूया, संघो विसेसो ण हि संथरो वा। कल्लाणहेदू ण उत्तं जिणेण, कल्लाणहेदू खु णियप्पझाणं ॥23॥ अन्वयार्थ (जिणेण) जिनेन्द्र भगवान ने (लोगपया) लोक पजा (खादी य लाहो) ख्याति लाभ (संथरो) संस्तर (वा संघो विसेसो) अथवा संघ विशेष (हि) वस्तुतः (कल्लाणहेदू) कल्याण का हेतु (ण वुत्तं) नहीं कहा है (दु) अपितु (णियप्पझाणं) निजात्मध्यान (कल्लाणहेदू) कल्याण का हेतु कहा है। अर्थ-जिनेन्द्र भगवान ने लोकपूजा, ख्याति लाभ की चाह, संस्तर अथवा संघ विशेष वस्तुतः कल्याण का हेतु नहीं कहा है अपितु निजात्मध्यान को कल्याण का हेतु कहा है। समता धारण करता हूँ जीवे य मरणे सुहे वा दुक्खे, लोढे सुवण्णे णयरे वणे वा। मित्ते अमित्ते य ममत्तबुद्धिं, वजामि सम्मं च धरेमि देव ॥24॥ अन्वयार्थ-(जीवे य मरणे) जीवन व मरण में (सुहे व दुक्खे) सुख व दुःख में (लोढे सुवण्णे) पत्थर व सुवर्ण में (णयरे वणे वा) नगर व वन में (मित्ते अमित्ते य) मित्र व शत्रु में (देव) हे देव! (ममत्तबुद्धी) ममत्वबुद्धि (वजामि) छोड़ता हूँ [और] (सम्मं च धरेमि) समता धारण करता हूँ। 330 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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