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________________ अन्वयार्थ-(थोवं) थोड़ा सा(अग्गी बाही रिणं) अग्नि रोग कर्ज (ममत्तं काम-कालुसं) ममत्व काम व कषाय ये (एदे सिग्धं हि वड्ढते) शीघ्र ही बढ़ जाते हैं (इणं सेसं ण मुंचह) इन्हें थोड़ा भी शेष मत छोड़ो।। भावार्थ-हे ज्ञानी! थोड़ी सी भी आग, व्याधि, कर्ज, ममता, काम वासना की कलुषता अथवा कषाय वृत्ति शीघ्र ही बढ़ जाती है, अतः इन्हें थोड़ा-सा भी शेष मत छोडो। ___ वे जीवित भी मरे के समान है। मण्णे मडं व जीवंतं, देहिणं धम्मवज्जिदं। मडं धम्मेण संजुत्तं, मण्णे दुदीहजीविणं ॥०॥ अन्वयार्थ-(धम्मवजिदं) धर्मरहित (देहिणं) देहधारियों को (जीवंतं) जीते हुए भी (मडं व मण्णे) मरे हुए के समान मानता हूँ (दु) किंतु (धम्मेण संजुत्तं) धर्म से संयुक्तं (मडं) मरे हुए को भी (दीहजीविणं) दीर्घजीवी के समान (मण्णे) मानता हूँ। भावार्थ-धर्मरहित मनुष्यादि देहधारियों को मैं जीते हुए भी मरे हुए के समान मानता हूँ तथा धर्म से सहित मरे हुए पुरुष भी दीर्घजीवी के समान माने जाते हैं। अतः धर्म धारण करो। वह सीखना चाहिए णत्थि सुदस्स अंतो य, कालो थोवा वदं मदी। अजेव सिक्खिदव्वं तं, जेण मरणं णस्सदि ॥51॥ अन्वयार्थ-(सुदस्स अंतो) श्रुत का अंत (णत्थि) नहीं है (य) और (कालो) काल (वदं) व्रत (मदी) मति (थोवा) थोड़ी है (इसलिए) (तं) वह (अजेव) आज ही (सिक्खिदव्वं) सीखना चाहिए (जेण) जिससे (मरणं) मरण (णस्सदि) नष्ट होता है। भावार्थ-श्रुत अर्थात् शास्त्रों का पार नहीं है, काल (समय), व्रत (संयम) तथा मति (बुद्धि) थोड़ी है, ऐसी दशा में वह तत्त्व आज ही सीख लेना चाहिए जिससे मरण का नाश होता है। इसलिए इनमें जुड़ जाओ समभावेण को दड्ढो, जिणवक्केण को हदो। धम्मज्झाणेण को णट्ठो, तम्हा एदम्हि जुंजह ॥52॥ अन्वयार्थ-(समभावेण को दड्ढो) समभाव से कौन जला है (जिणवक्केण को हदो) जिन वचन से कौन आहत हुआ है (धम्मज्झाणेण को णट्ठो) धर्मध्यान से कौन नष्ट हुआ है? (तम्हा एदम्हि जुंजह) इसलिए इनमें जुड़ जाओ। णियप्पज्झाण-सारो :: 319
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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