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________________ पूर्वक पाप व पदार्थों के त्याग का संकल्प भी आवश्यक है। यह ज्ञान-दर्शन स्वभावी आत्मा मेरी है, शेष सब अन्य है; ऐसा भेदज्ञान होने पर सम्पूर्ण बाह्य पदार्थ व अंतरंग विभाव तथा कर्म-समूह का स्वतः ही त्याग होता है। ऐसा होने पर यह जीव स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। आत्मसिद्धि के लिए कहीं से कुछ लाना-जोड़ना नहीं है, अपितु आत्मकेन्द्रित होना है। सो यह कार्य यदि लक्ष्य दिया जावे तो बहुत कठिन नहीं है। आत्मरूप के बोध से साम्य प्रगटता है जाणदि जदा सहावं, जीवो पावदि य सेट्ठ-संतोसं। तदा सरूवे चिट्ठदि, तेण दु पावेदि सिद्धत्तं ।।78॥ अन्वयार्थ-(जीवो) जीव (जदा सहावं जाणदि) जब स्वभाव को जानता है (तदा) तब (सेट्ठ-संतोस) श्रेष्ठ संतोष (पावदि) पाता है (य) और (सरूवे चिट्ठदि) स्वरूप में चेष्टा करता है (तेण दु सिद्धत्तं पावेदि) उससे सिद्धत्व प्राप्त करता है। अर्थ-जब जीव निज स्वभाव को जानता है तब श्रेष्ठ संतोष पाता है, जिससे स्वरूप में चेष्टा होती है और उससे सिद्धत्व प्राप्त होता है। व्याख्या-यह जीव जब सम्यक् प्रकार से निज ज्ञायक स्वभाव को जानता है, तब पर-पदार्थों के कारण होने वाली आकुलता के मिटने से अत्यन्त साम्यभाव को प्राप्त करता है, पर में एकत्व व आसक्ति न रहने से संतोष को प्राप्त होता है। स्थिरता रूप सम्पूर्ण संतोष की प्राप्ति के लिए निजस्वरूप में चेष्टा करता है। जिससे यह जीव सिद्धत्व को पाता है। सभी द्रव्यों के गुण-पर्याय, कार्य पृथक-पृथक हैं। इस तथ्य को भली प्रकार जान लेने से पर वस्तु में फेर-फार करने की बुद्धि नष्ट हो जाने से आकुलता नष्ट हो जाती है। आकुलता नष्ट होने से आस्रव-बंध नष्ट हो जाता है, संवर-निर्जरा शुरू हो जाने से मोक्ष प्राप्त होता है। वस्तु उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक है उप्पजदि सो णस्सदि, पज्जय-रूवेण चेदणं इदरं। तम्हा रागं मुंचह, विराग-संतोसं च धारेज ॥79॥ अन्वयार्थ-(पज्जयरूवेण) पर्यायरूप से (चेदणं इदरं) चेतन-अचेतन [जो] (उप्पज्जदि) उत्पन्न होता है (सो णस्सदि) वह नष्ट होता है (तम्हा) इसलिए (रागं मुंचह) राग को छोड़ो (विराग-संतोसं च धारेज) वैराग्य व संतोष को धारण करो। अर्थ-पर्यायरूप से जो चेतन-अचेतन पदार्थ उत्पन्न होता है, वह नष्ट होता है, इसलिए राग को छोड़कर वैराग्य व संतोष धारण करो। 290 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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