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________________ अन्वयार्थ-(जदि) यदि (समभावं इच्छसि) समभाव को चाहते हो (तो पर-वत्थूसु आदरं मुंच) तो पर-वस्तुओं में आदर छोड़ो [क्योंकि] (धणदारादिं जाव रुच्चदि) धन व स्त्री आदि जब तक रुचता है (ताव दुक्खसंघादो) तब तक दुःखसमूह है। अर्थ-यदि समभाव चाहते हो तो पर-वस्तुओं में आदर करना छोड़ दो, क्योंकि जब तक धन व स्त्री आदि रुचता है, तब तक दु:खसमूह है। व्याख्या-हे जीव! यदि तुम्हें भी समतारस का आनंद चाहिए हो, तो समस्त पर-वस्तुओं में ममत्वपूर्ण आदरभाव छोड़ो। क्योंकि अज्ञानतावश जब तक धन अर्थात् सोना-चांदी, रुपया-पैसा, दुकान-मकान आदि तथा स्त्री व पुत्र-पौत्रादि कुटुंबीजनों में आसक्ति मूलक राग है, तब तक दु:खों का समूह है। दु:खों का समूह इसलिए है, कि इस जीव को अपने स्वरूप की तो कुछ खबर नहीं है और धन-दारादि में एकत्व करके, हाय मेरा धन! हाय मेरी स्त्री! इत्यादि आकुलतारूप भाव अथवा भोगने रूप संक्लेशित भाव रखता है। इनके पीछे वह अपने आनंद गुण को भूलकर रात-दिन पशुओं की तरह मेहनत करके धन कमाता है, स्त्री आदि भोगता है और इसी मूढ़ता में अपने जीवन का अमूल्य समय और मानव तन खो देता है। अंततः हाथ कुछ भी नहीं आता। दर्शन-सखादि जीव में है दंसण-सुह-णाणादि, जीव-सरूवम्मि वत्थुदो अत्थि। पुग्गलधम्माधम्म-कालायासेसु णत्थि त्ति ॥73॥ अन्वयार्थ-(वत्थुदो) वस्तुतः (दंसण-सुह-णाणादि जीव सरूवम्मि अत्थि) दर्शन, सुख, ज्ञानादि जीव में हैं (पुग्गलधम्माधम्म कालायासेसु णत्थि त्ति) पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल में नहीं है। ____ अर्थ-दर्शन, सुख, ज्ञानादि वस्तुतः जीव के स्वरूप में हैं; पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल में नहीं हैं। व्याख्या-'चैतन्य लक्षणो जीवः'। जीव चैतन्य लक्षण वाला है। जीव के अलावा शेष द्रव्य अजीव हैं। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि जीवद्रव्य के विशेषगुण हैं। समस्त जीवों में इन गुणों का अंश अवश्य होता है क्योंकि गुणों का सर्वथा अभाव नहीं होता। पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल में ये गुण कदापि नहीं पाए जाते, क्योंकि उनके विशेष गुण अन्य हैं । ऐसा जानकर पुद्गलादि द्रव्यों में नहीं, निजात्मा के ज्ञान-दर्शनादि गुणों में ही एकत्व करना चाहिए। जीव का स्वभाव तो जानना है तथा पदार्थों का स्वभाव जानने में आना है। अन्झप्पसारो :: 287
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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