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________________ मोक्षप्रदान करने वाला होता है। छहढाला में कहा है-'सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दृढ़ चारित लीजे।' परदोष दृष्टा आत्महित कैसे साधेगा परदोसे चिय उच्चदि, णियदोसं ण किमवि पस्सेदि। अतच्चणाणी मूढो, सो किह साहेदि अप्पहिदं ॥67॥ अन्वयार्थ-[जो] (परदोसे चिय उच्चदि) दूसरे के दोष ही कहता है (च) और (णियदोसं ण किमवि पस्सेदि) निजदोष को कुछ भी नहीं देखता (सो) वह (अतच्चणाणी मूढो) अतत्त्वज्ञानी मूढ़ (अप्पहिदं) आत्महित (किह साहेदि) कैसे साधेगा। अर्थ-जो दूसरे के दोष ही कहता है और अपने दोष कुछ भी नहीं देखता, वह अतत्त्वज्ञानी मूढ आत्महित कैसे साधेगा। व्याख्या-जो दूसरों के छोटे-छोटे दोष देखने में जागते रहते हैं तथा अपने हाथी जैसे बड़े दोष देखने में आँख बंद करके रखते हैं। हे भगवान! वे तपस्वी क्या करेंगे? वे तो आपके शासन में अपात्र हैं । स्वयंभूस्त्रोत में यह बात आचार्य समंतभद्र ने लिखी है ये परस्खलितोन्निद्राः, स्व-दोषेभ-निमीलिनः। तपस्विनस्ते किं कुर्यु-रपात्रं त्वमश्रियाः ॥99॥ यह सटीक तथ्य है कि जिसकी दृष्टि परपदार्थ, परदोषों पर है, वह बहिर्मुख है तथा बहिर्मुख (बहिरात्मा) व्यक्ति कभी आत्महितैषी नहीं हो सकता है। यदि आत्महित करना है, तो अन्तर्दृष्टि करो। अपने ही दोषों को देखो और निर्दोष बनो। एक प्रसिद्ध दोहा है दोष पराए देखकर, चला हसत-हसंत। अपने याद न आवहि, जिनका आदिन अंत॥ ज्ञाता-दृष्टा भाव कर्मों को धोता है णाऊण य परवत्थु, रागद्दोसा जदि णो उठेति। एसो णादा-दट्ठा-, भावो य धुणेदि बहुकम्मं ॥68॥ अन्वयार्थ-(परवत्थु णाऊण) परवस्तु को जानकर (जदि) यदि (रागद्दोसा णो उठेति) राग-द्वेष नहीं उठते हैं [तो] (एसो णादा-दट्ठा-भावो) यह ज्ञातादृष्टाभाव है (य) और यह (बहुकम्म) बहुत कर्मों को (धुणेदि) धुनता है। 284 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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