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________________ विपरीत जो भेद-विज्ञानी जीव हैं, वे इस उत्तम मानव देह तथा महान जैनधर्म को पाकर निरंतर स्वरूप में रमणकर परमार्थ साधते हैं अर्थात् मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करते हैं। जो यहीं छूट जाना है, उसके लिए क्यों जीवन खराब करना। प्रथम ही आत्महित करो कुज्जा अप्पस्स हिदं, जदि सक्कदि परहिदं पि करेज। दोण्हं मज्झे णियगं, सुद्धसरूवं हि साहेजा ॥65॥ अन्वयार्थ-(अप्पस्स हिदं) आत्मा का हित (कुज्जा) करो (जदि सक्कदि परहिदं वि करेज) यदि शक्य हो तो दूसरों का भी हित करो (दोण्हं मझे णियगं, सुद्धसरूवं च साहेज्जा) दोनों में से निज शुद्धस्वरूप को साधो। अर्थ-आत्मा का हित करो, यदि संभव हो तो परहित भी करो, दोनों में निज शुद्ध-स्वरूप को ही साधो। व्याख्या-हे आत्मन्! यह मानव पर्याय पाकर निश्चित ही आत्मकल्याण की दिशा में पुरुषार्थ करो। तुम्हारी स्थिरवृत्ति बनी रहने के बाद यदि संभव हो तो अन्य जीवों के कल्याण के लिए प्रवचन, शिक्षा-दीक्षा देनेरूप परहित करो। लेकिन दोनों के बीच में अपना हित साधना मुख्य है। अपना घर जलाकर दूसरों की सर्दी मिटाना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है।। आत्महित आज ही करो आदहिदं जदि इच्छसि, करिज णियमेण तं पि अजेव। पुव्वं च तच्चणाणं, पच्छा धारेज्ज जिणरूवं ॥66॥ अन्वयार्थ-(आदहिदं जदि इच्छसि) आत्महित यदि चाहते हो (तं) वह (णियमेण) णियम से (अज्जेव) आज ही (करिज्ज) करो (पुव्वं तच्चणाणं) पहले तत्त्वज्ञान (च) और (पच्छा जिणरूवं धारेज) बाद में जिनरूप धारण करो। ___ अर्थ-हे जीव! यदि तुम आत्महित चाहते हो तो वह नियम से आज ही कर डालो, उसमें भी पहले तत्त्वज्ञान और पश्चात् जिनरूप धारण करो। ___व्याख्या-आचार्य कुन्दकुन्द देव ने प्रवचनसार (201) में कहा है-पडिवज्जदु सामण्णं, इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं । यदि दुःखों से छूटने की इच्छा है, तो दीक्षा धारण करो। असंयम और कषाय भावों से छूटकर व्रतादि धारण करना व्यवहार आत्महित है तथा निजात्म में तल्लीन होना, यह निश्चय आत्महित है। व्रत-संयम धारण करने के पूर्व तत्त्वज्ञान अवश्य ही होना चाहिए। तत्त्वज्ञान की श्रद्धा सम्यग्दर्शन तथा तत्त्वज्ञान का आचरण सम्यक् चरित्र है। श्रद्धानात्मक तत्त्वज्ञान होने पर जो चारित्र होता है, वह जीव के कर्मबंधनों को छेदकर अज्झप्पसारो :: 283
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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