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________________ क्योंकि उसे वस्तुतः जीव व कषायभावों की अलग-अलग पहचान नहीं है। यहाँ जीवों की रक्षा करने में जो अहंकार का अभिनिवेश तथा कषायभावों में एकत्वबुद्धि है, उसे आत्मघात तथा मिथ्यात्व का पोषक कहा गया है। मिथ्यात्व पोषक कौन है कोहादिकसाये हु, मंदे कादूण होदि संतुट्ठो। तस्सिं चिय सामित्तं, करेदि पोसेदि मिच्छत्तं ॥61॥ अन्वयार्थ-[जो] (कोहादिकसाये हु मंदे कादूण) क्रोधादि कषायों को मंद करके (संतुट्ठो) संतुष्ट (होदि) होता है [तथा] (तस्सिं चिय सामित्तं करेदि) उसमें ही स्वामित्व करता है [वह] (मिच्छत्तं पोसेदि) मिथ्यात्व को पोषता है। अर्थ-जो क्रोधादि कषायभावों को मंद करके संतुष्ट होता है तथा उसमें ही स्वामित्व करता है, वह भी मिथ्यात्व का पोषण करता है। व्याख्या-जो क्रोधादि कषायों को आत्मा से पृथक और अग्राह्य नहीं समझता हुआ। क्रोधादि की मंदता धारण करके उसमें ही अहंभाव धारण करता है अथवा क्रोधादि की हीनता में ही स्वामित्व करता है। वह भेदविज्ञानी न होने से मिथ्यात्व का ही पोषण करता है। धन-पद को ऊँचा मानने वाला भी मिथ्यात्वी णियअप्पा परमप्पा, सव्वुक्कळं च जादि णिव्वाणं। धण-पद-वपुं जो सेट्ठं, मण्णदि पोसेदि मिच्छत्तं ॥62॥ अन्वयार्थ-(णियअप्पा परमप्पा) निज आत्मा परमात्मा [च] और (सव्वुक्कट्ठ) सर्वोत्कृष्ट है [क्योंकि] (णिव्वाणं जादि) निर्वाण को जाता है [किन्तु] (धण-पद-वपुं जो सेठं मण्णदि) धन, पद व शरीर आदि को जो श्रेष्ठ मानता है [वह] (मिच्छत्तं पोसेदि) मिथ्यात्व को पोषता है। अर्थ-निज आत्मा ही परमात्मा है, सर्वोत्कृष्ट है, क्योंकि वह निर्वाण को प्राप्त करता है। जो धन, पद या शरीरादि को श्रेष्ठ मानता है, वह मिथ्यात्व को पोषता है। व्याख्या-'अप्पा सो परमप्पा।' बीजभूत यह संसारी आत्मा ही परमात्मा होता है। इन संसारी जीवों में जो स्व-रूप का बोध पा लेते हैं, वे पुरुषार्थ के बल से परमात्मा हो जाते हैं। निम्नपर्याय में स्थित भी आत्मा अन्य सब पदार्थों से उत्कृष्ट है। क्योंकि किसी भी समय योग्य पर्याय पाकर तीव्र पुरुषार्थ के बल से यह जीव निर्वाण को जाता है। जो व्यक्ति अपने ज्ञायक स्वभाव को कुछ नहीं समझकर धन, पद, वैभव अथवा देहादि को आत्मद्रव्य से श्रेष्ठ समझता है, मानता है, वह मिथ्यात्व का पोषण करता है। क्योंकि वह अचेतन जड़ पदार्थों में आसक्तिपूर्ण एकत्व रखे हुए है अज्झप्पसारो :: 281
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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