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________________ अधीन है, मैं दूसरे के और दूसरा मेरे परिणमन का कर्ता-हर्ता नही हैं, तब मैं रागद्वेष क्यों करूँ; ऐसी जो उदासीनता पूर्ण सहज प्रवृत्ति है, वह ही अहिंसा व मोक्षमार्ग है। पद आपद सहित हैं आपद-सहिदं हि पदं, भवस्स मूलं दुक्ख-हिंसा वा। णियपदं आपदरहिदं, तम्हा णाणपदं तु तं पेक्ख ॥59॥ अन्वयार्थ-(पदं) पद (हि) वस्तुतः (आपद-सहिदं) आपद सहित (भवस्स मूलं दुक्ख-हिंसा वा) संसार के कारण दुःख अथवा हिंसा हैं (तु) किन्तु (णियपदं आपदरहिदं) निजपद आपद रहित है (तम्हा) इसलिए (तं) उस (णाणपदं) ज्ञानपद को (पेक्ख) देखो। अर्थ-संसार के पद आपद सहित हैं, संसार के कारण, दु:ख अथवा हिंसा हैं, किन्तु निजपद आपदरहित है, इसलिए उसे देखो। व्याख्या-हे प्रभु आत्मन् ! संसार के जितने भी सामाजिक, राजनैतिक, शासकीय, प्रशासकीय पद हैं, वे सब आपद (आपत्ति) के ही कारण हैं। इन पदधारियों को दूसरों से खतरा व द्वेष प्रायः रहता है, जिससे परिणामों में निरंतर चल-विचलता बनी रहती है। यह परिणामों की अशुद्धि संसार का मूलकारण है, मानसिक व दैहिक दुःख तथा हिंसा का भी मूल यही है। जबकि आत्मा का निज ज्ञानपद समस्त आपत्तियों से रहित मोक्ष, सुख व अहिंसा का मूलकारण है। अतः भो आत्मन्! अपने ज्ञानपद पर दृष्टि दो। क्षायोपशमिक ज्ञान व किंचित् पुण्य के बल से प्राप्त बाह्यपदों का तेरे निजपद के सामने क्या मूल्य है? कुछ भी नहीं। निजपद शाश्वत व आनंद सहित है, जबकि लौकिक पद अशाश्वत व दु:ख सहित हैं। आत्मघाती कौन है परजीवेसु करुणा, कसायभावे हि अप्पणो घादं। करेदि सो अण्णाणी, जीवो पोसेदि मिच्छत्तं ॥60॥ अन्वयार्थ-[जो] (परजीवेसु करुणा) अन्य जीवों पर करुणा [व] (कसायभावे हि अप्पणो घादं करेदि) कषायभावों से अपना घात करता है (सो अण्णाणी) वह अज्ञानी जीव (मिच्छत्तं) मिथ्यात्व को (पोसेदि) पोषता है। अर्थ-जो अन्यजीवों पर तो करुणा तथा कषायभावों से अपनी आत्मा का घात करता है, वह अज्ञानी जीव मिथ्यात्व को पोषता है। व्याख्या-वस्तुस्वरूप के ज्ञान बिना यदि कोई अन्यजीवों की तो रक्षा करता है, इतने मात्र को ही धर्म मानता है तथा कषायभावों के वशीभूत हो निरंतर क्रोधादि करने रूप आत्मघात करता है, वह अज्ञानी जीव मिथ्यात्व का ही पोषण करता है; 280 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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