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________________ किसी भी स्थिति में भाव मत बिगाड़ो छिजदु भिजदु अंगो, सिर-पुट्ठी हत्थ-पाय इच्चादि। तो वि णिय-संत-भावं, सुद्धोवजोगं मा हणह॥48॥ अन्वयार्थ-(सिर-पुट्ठी हत्थ-पाय इच्चादि अंगो) सिर, पीठ, हाथ, पैर इत्यादि अंग (छिज्जदु भिजदु) छिद जावे भिद जावे (तो वि) फिर भी (णिय-संतभावं) निज शांतभाव को (च) और (सुद्धोवजोगं) शुद्धोपयोग को (मा हणह) नष्ट मत करो। अर्थ-सिर, पीठ, हाथ-पैर इत्यादि शरीर के अवयव कदाचित छिद-भिद जावे तो भी अपने शांतभाव व शुद्धोपयोग को नष्ट मत करो। व्याख्या-किसी कारण से शरीर के अंग-उपांग कदाचित छिद-भिद जावे, अस्त-व्यस्त हो जावे तब भी ज्यादा चिंता मत करो, क्योंकि ऐसा होने से आत्मा का कुछ भी नहीं बिगड़ता; किन्तु किसी परिस्थिति में अपने शांतभाव व शुद्धोपयोग (शुभोपयोग) को नष्ट मत करो, क्योंकि इससे आत्मा का सब कुछ बिगड़ता है। तन बिगड़े तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता किन्तु मन बिगड़ जाये तो सब कुछ बिगड़ जाता है। जनसंसर्ग से बचो जेत्तिय-जीवा लोए, तेत्तिय तेसिं च होंति हि सहावा। तम्हा जणसंसग्गं, मुत्ता आदेहि णिवसेज्जा॥49॥ अन्वयार्थ-(जेत्तिय जीवा लोए) लोक में जितने जीव हैं (तेत्तिय तेसिं च होंति हि सहावा) उतने ही उनके स्वभाव होते हैं (तम्हा जणसंसग्गं मुत्ता) इसलिए जनसंसर्ग छोड़कर (आदेहि णिवसेज्जा) आत्मा में ही निवास करो। अर्थ-लोक में जितने जीव हैं, उतने उनके स्वभाव हैं, इसलिए जनसंसर्ग छोड़कर आत्मा में ही निवास करो। ___ व्याख्या-प्रत्येक जीव के भाव (परिणाम) पृथक-पृथक होते हैं। कुछ जीवों को छोड़कर किसी के परिणाम किसी से भी नहीं मिलते, ऐसे में राग अथवा द्वेष की संभावना अधिकतम होती है। राग-द्वेष से आस्रव-बंध होता है और इससे संसार अत: जगज्जनों का संसर्ग त्यागकर आत्मस्थित होने का पुरुषार्थ करना चाहिए। इस आशय का एक श्लोक समाधितंत्र (72) में आया है। नियमसार में भी कहा है णाणा जीवा णाणा कम्मा णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयण विवाद, सग-पर समएहिं वजेजा ॥156॥ अर्थात् लोक में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं; अत: स्व-पर के विषय में वचन-विवाद का त्याग करो। अज्झप्पसारो :: 275
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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