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________________ पानी पीने से सरल है आत्मानुभव पाणी पाणाहिंतो, अदिसरलं णिय - सहावाणुहवं । अप्पाण- मजाणतो, णिरत्थयं कालं खवेदि ॥40॥ अन्वयार्थ – (पाणी पाणाहिंतो ) पानी पीने से ( अदिसरलं णिय सहावणुहवं ) अतिसरल निज-स्वभावानुभव है ( अप्पाणमजाणतो) किन्तु निज को नहीं जानता हुआ (रित्यं कालं खेवेदि) निरर्थक काल-क्षेप करता है। अर्थ - पानी पीने से भी सरल निज आत्मा का अनुभव है; किन्तु निज को न जाने से यह जीव व्यर्थ समय गंवाता है । व्याख्या - निज आत्मा निजद्रव्य है, स्वयं तू ही है, वह कहीं बाहर से नहीं लाना है; इसलिए राग-द्वेषादि विभावों से रहित निज शुद्धात्म-तत्त्व का अनुभव करना पानी पीने से भी सरल है, क्योंकि यदि पानी पीना है, तो भरना, छानना, बर्तन मुँह तक ले जाना आदि अनेक श्रम करना पड़ते हैं, जबकि आत्मानुभव में तो " मैं यह रागद्वेषादि सकल विभावों से रहित ज्ञान - दर्शनादि गुणों वाला चैतन्य आत्मा हूँ" इस प्रकार की तल्लीनता मात्र चाहिए। किन्तु वस्तुस्वरूप का सम्यग्ज्ञान न होने से यह जीव व्यर्थ में कालक्षेप अर्थात् समय की बर्बादी करता है । 'निजानुभवसंपन्नोऽहम्'। आत्मा निजस्वरूप से तो प्रगट ही है णिच्चं हि लेंति जीवा, आदसरूवस्स पयडिदं सादं । णादूण लेंति णाणी, मोही मोहेण बिब्भमइ ॥ 41 ॥ अन्वयार्थ - (हि) वस्तुतः (जीवा) जीव (आदसरूवस्स पयडिदं सादं ) निजस्वरूप के प्रकटित स्वाद को ( णिच्चं ) हमेशा (लेंति) लेते हैं, ( णाणी णादूण लेंति) ज्ञानी जानकर लेते हैं [ जबकि ] ( मोहेण मोही बिब्भमई) मोह से मोही भ्रमित होते हैं । अर्थ - वस्तुतः सभी जीव निजस्वरूप के प्रगटित स्वाद को हमेशा लेते हैं, ज्ञानी जानकर लेते हैं, जबकि मोहीजन मोह से भटकते हैं । व्याख्या - संसार के समस्त जीव वस्तुतः जितने अंशों में उनके ज्ञान का क्षयोपशम है, उतने अंशों में प्रगट हुए निजस्वरूप के स्वाद को ही हमेशा लेते हैं । जीव का स्वभाव ज्ञान - दर्शन है। संसार का ऐसा कोई जीव नहीं है जिसमें ज्ञान न हो; प्रत्येक जीव को कम से कम अक्षर का अनंतवाँ भाग ज्ञान तो रहेगा ही, जो कि हमेशा निरावरण ही रहता है । जैसा कि गोम्मटसार जीवकांड में कहा है सुमणिगोद अपज्जत्तयस्स जादस्स पढम समयम्हि । हवदि हु सव्वजहणणं, णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥319 ॥ अज्झप्पसारो :: 271
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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