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________________ भेद विज्ञानतः सिद्धाः, सिद्धाः ये किल केचन। अस्यैवाभावतो बद्धाः, बद्धाः ये किल केचन॥ आत्मा का स्वरूप णिग्गंधो णिव्वण्णो, णिप्फासो णीरसो अवत्तव्यो। चेदणगुण-संजुत्तो, णिम्मोहो णिक्क्लो अप्पा ॥38॥ अन्वयार्थ-(अप्पा) आत्मा (णिग्गंधो णिव्वण्णो णिप्फासो णीरसो अवत्तव्वो चेदणगुण-संजुत्तो णिम्मोहो णिक्कलो) गंधरहित, वर्ण रहित, स्पर्श रहित, रस रहित, अवक्तव्य, चेतनगुण युक्त, निर्मोह व निष्कल है। __ अर्थ-आत्मा गंधरहित, वर्ण रहित, स्पर्श रहित, रस रहित, अवक्तव्य, चेतनगुण युक्त, मोह रहित तथा शरीर रहित है। __ व्याख्या-पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (9) में आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा को चैतन्यगुण युक्त, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित, गुण-पर्याय युक्त तथा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य संयुक्त कहा है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार (49 से 55) में उपरोक्त विषय पर खुलकर लिखा है, जो टीका सहित मूलतः पठनीय है। स्पर्श, रस, गंध व वर्ण ये पुद्गल के गुण हैं, किन्तु संसारी दशा में कर्म-बद्ध होने से वह शरीरादि को धारण करने वाले जीव के दिखते हैं। वस्तुतः जीव इनसे रहित चैतन्य द्रव्य है। 'स्पर्शरसगंधवर्णादिरहितोऽहम्'। आत्मा में हास्यादि नहीं हैं रागो दोसो मोहो ण वि हासो व विजदे जोगो। ण दु कम्मं णोकम्मं, जीवे णाणादि अस्थि त्ति ॥39॥ अन्वयार्थ-(जीवे) आत्मा में (ण वि रागो दोसो मोहो) राग द्वेष मोह नहीं है (हासो णेव विजदे जोगो) हास्य व योग विद्यमान नहीं है (ण कम्मं णोकम्म) न कर्म नोकर्म हैं (दु) किन्तु (णाणादि अत्थि त्ति) ज्ञानादि हैं। अर्थ-आत्मा में राग-द्वेष, मोह, हास्य, योग, कर्म, नोकर्म आदि विद्यमान नहीं हैं; किन्तु ज्ञानादि गुण हैं। व्याख्या-यह चैतन्य आत्मा राग-द्वेष, मोह, हास्यादि नोकषाय, ज्ञानावरणादिकर्म तथा शरीरादि नोकर्म से रहित है। वस्तुतः ये आत्मा में नहीं हैं, किन्तु यह सभी कर्मकृत हैं। जीव का स्वभाव तो ज्ञान-दर्शन आदि अनंतगुणों को धारण करना है। समयसार (38-43) में इसे विशेष रूप से पढ़ें। 'रागद्वेषकर्मनोकर्मादिभावशून्योऽहम्'। 270 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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