SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किन्तु जो मनुष्य जिनवाणी पढ़कर संसार में भटकता है, उसे ऐसा समझो कि वह अमृत पीकर मरता है। व्याख्या-सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए अनुलंघ्यनीय, दृष्ट व इष्ट तत्त्व के अविरोधी, विषय-कषायादि कुपथ को नष्ट करने वाले वचनों से रचित ग्रन्थों को जिनागम कहते हैं। जैसा कि आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने कहा है आप्तोपज्ञमनुलंघ्य-मदृष्टेष्टऽ विरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत् सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम्॥१॥ वर्तमान के उपलब्ध आगमग्रन्थों में आचार्य गुणधर का कसाय पाहुड, आचार्य पुष्पदंत भूतबली का षट्खंडागम, आचार्य कुन्दकुन्द के समयसारादि, आचार्य वट्टकेर का मूलाचार, आचार्य शिवार्य की मूलाराधना तथा आचार्य गृद्धपिच्छ का तत्त्वार्थसूत्र आदि कुछ ही ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनका सीधा सम्बंध द्वादशांग श्रुत से है। इनके अलावा भवभीरू दिगम्बर जैनाचार्यों ने गुरु परम्परा से प्राप्त हुए जिस श्रुतज्ञान से ग्रन्थों की रचना की है, वे भी जिनागम कहलाते हैं। दिगम्बर परम्परा के अधिकांश श्रेष्ठतम ग्रन्थ ईसा की दूसरी शताब्दी के पूर्व के हैं, जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थ पाँचवी शताब्दी या इसके बाद के हैं। अन्य सम्प्रदायों के ग्रन्थ आगम की कोटि में नहीं आते। वस्तुतः जैनागम पंचेन्द्रियों के विषयभोग या क्रोधादि कषायों का पोषण नहीं करता, क्योंकि ये आत्मा को दुर्गति में ले जाने वाले हैं। जिनवाणी तो जीवों के विषयकषाय व अज्ञान को नष्ट करती है। इसके विपरीत समयसार आदि श्रेष्ठ ग्रन्थों को पढ़कर कोई मनुष्य स्वच्छंदी होकर 'ज्ञानी को बंध नहीं होता' ऐसा कहकर विषयासक्त होता है; तो कहते हैं कि वह अमृत पीकर भी मरने वाले के समान है। जैसे लोक में अमृत को अमर करने वाला कहा जाता है, वैसे ही जिनवाणी मोक्ष देती है, दुःख व अज्ञान से छुड़ाकर सुखी करती है; किन्तु कोई मनुष्य शास्त्र पढ़कर भी अनर्गल प्रवृत्ति करे, तो समझो कि वह अमृत पीकर भी मर रहा है। 'विषय-कषायशून्योऽहम्।' सम्यक्चारित्र का लक्षण सुहे पवित्ती चरणं ववहारा णिच्छएण चारित्तं । एगोहं सुद्धोहं, णादा-दट्ठा य अणुहवणं॥7॥ अन्वयार्थ-(सुहे पवित्ती) शुभ में प्रवृत्ति (ववहारा) व्यवहार से (चरणं) चारित्र है, (च) तथा (एगोहं सुद्धोहं, णादा-दट्ठा य अणुहवणं) मैं एक हूँ, मैं शुद्ध हूँ, अज्झप्पसारो :: 251
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy