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________________ मान्यता रखना विपर्यय ज्ञान कहलाता है। __ अनध्यवसाय-सम्यग्ज्ञान न होने से मैं जीव हूँ, या शरीर हूँ, कर्म हूँ, बंध, उदय, सत्व, अध्यवसान या अन्य कुछ और हूँ, ऐसी जो अनेक कोटि-स्पर्शी मान्यता है, वह अनध्यवसाय है। इन तीनों दोषों से रहित सप्ततत्त्व तथा आत्मस्वरूप का यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है। इसके पाँच भेद हैं-1. मतिज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनःपर्ययज्ञान, 5. केवलज्ञान। 'सम्यग्ज्ञानसम्पन्नोऽहम्।' सम्यग्ज्ञान का कार्य रागो जेण विणस्सदि, मित्ती सेओ धिदी य पुस्सदि हि। अत्ता वाचा सुज्झदि, जिणिंद-कहिदं हि तं णाणं ॥5॥ अन्वयार्थ-(जेण) जिससे (रागो विणस्सदि) राग विनष्ट होता है, (मित्ती सेओ धिदी य पुस्सदि) मैत्री, श्रेय व धृति पुष्ट होती है, (अत्ता वाचा सुज्झदि) आत्मा व वचन विशुद्ध होता है (हि) वस्तुतः (तं) वह (जिणिंद-कहिदं णाणं) जिनेन्द्र-कथित ज्ञान है। अर्थ-जिससे राग नष्ट होता है, मैत्री, श्रेय व धृति पुष्ट होती है तथा आत्मा व वचन विशुद्ध होता है, वस्तुतः वह ही जिनेन्द्र कथित ज्ञान है। व्याख्या-जिस श्रेष्ठ आत्मानुभवरूप ज्ञान से वस्तुस्वरूप का, समस्त द्रव्यगुण-पर्यायों का सम्यग्ज्ञान होने से परवस्तुओं के प्रति आसक्तिरूप राग नष्ट होकर वीतरागता प्रगट होती है; जगत के समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव, स्व-पर के श्रेय (कल्याण) की भावना व धैर्य अथवा धारणा अत्यन्त पुष्ट होकर निर्भयता आती है तथा आत्मतत्त्व की कर्मों से रहितता रूप शुद्धि व वचन की भाषा समिति युक्त प्रवृत्ति रूप विशुद्धि होती है; वस्तुतः ऐसा जो जिनेन्द्र कथित ज्ञान है वह ही सम्यग्ज्ञान है। 'ज्ञानस्वरूपोऽहम्।' जिनागम विषय-कषायों का पोषण नहीं करता जिणागमो ण पोसदि, विसय-कसायं च भोग-अण्णाणं। पढिदूण य भमदि भवे, अमिदं पिबिऊण सो मरदि॥6॥ अन्वयार्थ-(जिणागमो) जिनागम (विसय-कसायं च भोग-अण्णाणं) विषय, कषाय, भोग और अज्ञान को (ण पोसदि) नहीं पोषता [किन्तु जो मनुष्य जिनवाणी] (पढिदूण य) पढ़कर (भवे भमदि) संसार में भ्रमण करता है [सो] वह (अमिदं पिबिऊण) अमृत पीकर (मरदि) मरता है। ___ अर्थ-जिनागम विषय, कषाय, भोग और अज्ञान का पोषण नहीं करता; 250 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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