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________________ में रहता हुआ, स्वात्मा में स्थित रहता है, ऐसे आत्मज्ञानियों का निवास स्थान निश्चल निजात्मा ही है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने समाधितंत्र में कहा है कि 'ग्राम अथवा वन का निवास तो अनात्मदर्शियों का विषय है, किन्तु आत्मा को जानने वाला तो कहीं भी रहे, निजात्मा में ही रहता है।' निजात्म-निलय-सुस्थितोऽहम् ' 167॥ ये चार अभूतपूर्व हैं णत्थि विजा समं चक्खू, णत्थि सच्चसमं तवो। णत्थि रायसमं दुक्खं, णत्थि चागसमं सुहं ॥68॥ अन्वयार्थ-(णत्थि विज्जा समं चक्खू) विद्या के समान आँख नहीं है (णत्थि सच्चसमं तवो) सत्य के समान तप नहीं है (णत्थि रायसमं दुक्खं) राग के समान दु:ख नहीं है [और] (णत्थि चागसमं सुहं) त्याग के समान सुख नहीं है। अर्थ-इस लोक में विद्या के समान आँख, सत्य के समान तप, राग के समान दु:ख तथा त्याग के समान सुख नहीं है। व्याख्या-सम्यग्ज्ञान रूपी नेत्र से जीव हिताहित का विवेक करता है, निश्चय-व्यवहार तथा आत्मिक कल्याण को जानता है, इसलिए विद्या(ज्ञान) ही श्रेष्ठ आँख है। प्रवचनसार में आगम को साधु की आँख कहा है। सत्य के समान कोई तप नहीं। राग अत्यधिक संताप तथा आकुलता कराने वाला है, इसलिए राग ही दु:ख व कर्मबंध की जड़ है। तथा त्याग यदि विवेक व वैराग्यपूर्वक किया है, तो उसके जैसा संसार में कोई सुख नहीं; यही आत्मोत्थसुख मुक्ति का कारण होता है। ये चार बातें अभूतपूर्व हैं । 'विद्याचक्षुसंपन्नोऽहम्' ॥68॥ संसार के चार कारण ण वरं बंधणं णेहा, ण विसं विसया परं। ण कोपा अवरो सत्तू, ण दुहं जम्मदो परं॥69॥ .. अन्वयार्थ-(ण वरं बंधणं णेहा) स्नेह से बड़ा बंधन नहीं है, (ण विसं विसया परं) विषयों से बढ़ा विष नहीं है (ण कोपा अवरो सत्तू) क्रोध से अन्य कोई शत्रु नहीं है [तथा] (ण दुहं जम्मदो परं) जन्म से बड़ा दुःख नहीं है। अर्थ-लोक में स्नेह से बड़ा बंधन, विषयों से भयंकर विष, क्रोध के अलावा शत्रु तथा जन्म से अधिक दुःख दूसरा नहीं है। ___व्याख्या-बेड़ी या अर्गल से भी स्नेह का बंधन महान है। संसार में जो भी रिश्ते-नाते है, वे सब केवल स्नेह-पाश से ही बँधे हैं। मोह का बंधन ऐसा है कि हजारों कोष दूर बैठे जीव भी आपस में बंधे रहते हैं। चाणक्य ने कहा है कि 'जो 242 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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