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________________ - अन्वयार्थ – (धणं गेहं कुटुंबं च चत्ता वि) धन, गृह, कुटुम्ब छोड़कर भी (जो ) जो ( राय - दोसे) राग- द्वेष (च) और ( कसायं) कषाय को (ण मुंचदे) नहीं छोड़ता (तस्स) उसका (सो) वह (चागो) त्याग ( णित्फलो) निष्फल है। अर्थ – धन, गृह, कुटुम्ब आदि छोड़कर भी जो राग-द्वेष और कषाय को नहीं छोड़ता उसका वह त्याग निष्फल है। व्याख्या - संसारी जीव मोहवश धन-गृह आदि को एकत्रित करने में ही अपना अमूल्य समय खो देता है । शरीर की सेवा में व्यस्त रहता है, इसकी सुरक्षा के लिए विविध वस्तुओं का अर्जन, संरक्षण और संस्कार करता है। ऐसे में कोई जीव धन-गृह, कुटुम्ब आदि का त्याग करके भी यदि उसमें ही राग अर्थात् आसक्तिरूप प्रेमभाव, द्वेष अर्थात् घृणारूप अरतिभाव तथा क्रोध, मान, माया व लोभादि कषायभावों का त्याग नहीं करता है तो उसका समस्त त्याग निष्फल है। बाह्य वस्तुओं का त्याग अभ्यंतर विशुद्धि के लिए किया जाता है। भावों की शुद्ध बनी रहे तो बाह्य वस्तुओं का त्याग करना या न करना बराबर है। बाह्य त्याग मात्र से कदाचित अकाम निर्जरा तो हो सकती है। किन्तु मोक्ष की प्राप्ति नहीं । प्रवचनसार में कहा है चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि । ण जहदि जदि मोहादि ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥79 ॥ अर्थात् पापारंभ त्यागकर तथा शुभचर्या में तल्लीन होकर भी यदि कोई मोह का त्याग नहीं करता है, तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं करता है । मोक्षमार्ग में मोह का त्याग अनिवार्य है । 'सकलबाह्यविभव - रहितोऽहम् ' ॥66 ज्ञानी का निवास स्थान गामे वणे य उज्जाणे, णिवासो मूढ- बोहिणं । दिट्ठप्पाणं णिवासो दु, णिय-अप्पे हि णिच्चले ॥67 ॥ अन्वयार्थ - (गामे वणे य उज्जाणे) ग्राम, वन और उद्यान में (मूढ - बोहिणं) मूढबुद्धियों का ( णिवासो) निवास है (दु) किन्तु ( दिट्ठप्पाणं) दृष्टात्माओं का (णिवासो) निवास (णिय- अप्पे हि णिच्चले ) निश्चल निज आत्मा में ही है । अर्थ–ग्राम, वन या उद्यान में निवास मूढबुद्धियों का होता है, किन्तु जिनने निज आत्मा को देख लिया है ऐसे भव्यों का निवास तो निजात्मा में ही होता है । व्याख्या—मैं गांव, नगर, वन, उपवन, धर्मशाला अथवा मंदिर में रहता हूँ अथवा जहाँ मैं रहता हूँ, वह ही रहने योग्य उत्तम स्थान है; जिसकी ऐसी ही मान्यता है । वह वस्तुतत्त्व से अनभिज्ञ मूढबुद्धि है। किन्तु जो बाह्य में कहीं भी एकांत स्थानों भावणासारो :: 241
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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