SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्वयार्थ—-(हि) वस्तुतः (जदा) जब (बुद्धी) बुद्धि (सुट्ठ) अच्छी तरह (मोह-पंकं) मोह पंक को (तरिस्सदि ) तर जाएगी (तदा) तब ( भोग - देहादु लोग दो) भोग, देह व लोक से ( णिव्वेदं) वैराग्य ( होहिदि) हो जाएगा । अर्थ–वस्तुतः जब बुद्धि अच्छी तरह मोह रूपी कीचड़ को अच्छी तरह तर जाएगी, तभी भोग, देह व संसार से वैराग्य होता । व्याख्या - मोह अर्थात् मिथ्यात्व | जब तक तत्त्वज्ञान के बल से जीव की बुद्धि इस मिथ्यात्व रूपी कीचड़ से पार नहीं हो जाती है, पर पदार्थों में एकत्व करती है, कर्तृत्व व भोक्तृत्व में आसक्त होती है; तब तक संसार, शरीर व भोगों से वैराग्य नहीं हो सकता। आचार्य पूज्यपाद ने इष्टोपदेश में कहा है मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते नहि । मत्ता पुमान् पदार्थानां यथा मदन- कौद्रवैः ॥8॥ अर्थात् मोह से ढका हुआ ज्ञान स्वभाव को नहीं पाता । जैसे कि मदन कोदों खाकर अथवा शराब पीकर मतवाला होकर पुरुष पदार्थों को ठीक तरह नहीं जानता है। जब तक जीव की अनंतानुबंधी कषाय तथा मिथ्यात्वादि कषाय तीन प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम नहीं होता है, तब तक वह तत्त्वनिर्णय कर वैराग्य धारण नहीं कर सकता है। मिथ्यात्व नष्ट होने पर जब जीव संसार, शरीर व भोगों को असार समझने लगता है, तब उसे आचार्य समंतभद्र ने दर्शन प्रतिमाधारी दार्शनिक श्रावक कहा है । मोहपंकरहित ज्ञानस्वरूपोऽहम् ' ॥47 ॥ धर्म - भावना गेहं धणं कलत्तादि, रायसुहं ण दुल्लहो । इक्को हि दुल्लहो धम्मो, बोहिं मोक्खस्स दायगो ॥48 ॥ - अन्वयार्थ – (गेहं धणं कलत्तादि) गृह, धन, कलत्रादि [ तथा ] ( रायसुहं ण दुल्लहो) राजसुख दुर्लभ नहीं है (हि) वस्तुत: ( इक्को) एक ( बोहिं मोक्खस्स दायगो) बोधि व मोक्षदायक (धम्मो ) धर्म (दुल्लहो ) दुर्लभ है। अर्थ – गृह, धन, स्त्री आदि तथा राजसुख दुर्लभ नहीं है, अपितु एक बोधि तथा मोक्षदायक धर्म ही दुर्लभ है। व्याख्या - बोधिदुर्लभ भावना में एकेन्द्रियादि पर्यायों को क्रमशः दुर्लभ बताते हुए बोधि को अत्यन्त दुर्लभ कहा है। यहाँ धर्म भावना में यह कहा जा रहा है कि यदि कोई जीव बालतप, अकामनिर्जरा, शुभयोगों के बल से कदाचित उत्तम गृह, अपार धन-धान्य, सुंदर स्त्री- पुत्रादि तथा राज्यसुख आदि को प्राप्त कर ले, तो 226 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy