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________________ निश्चित है कि परद्रव्यरत जीवों की दुर्गति होती है, जबकि स्वद्रव्यरत जीवों की सुगति होती है। अतः यह जानकर स्वद्रव्य में ही रति करना चाहिए (मोक्ष पाहुड 16)। स्वद्रव्य के आश्रय से ही यह जीव रत्नत्रय रूप बोधि तथा चराचर को देखनेजानने की क्षमता अर्थात् केवलदर्शन व केवलज्ञान को प्राप्त करता है। अतः स्वद्रव्यदृष्टि ही सब प्रकार से कल्याण-कारिणी है। 'स्वद्रव्यज्ञायकस्वभाव-स्वरूपोऽहम्'।।45 ॥ कषाययुक्त आत्मा तत्त्व नहीं जानता कसाय-संजुदं चित्तं, तच्चं णो अवगाहदे। जहा णीलंबरे रत्ते, सेडवण्णो ण रंजदि।46॥ अन्वयार्थ-(कसाय-संजुदं चित्तं) कषाय संयुक्त चित्त (तच्चं) तत्त्व को (णो अवगाहदे) ग्रहण नहीं करता है (जहा) जैसे (णीलंबरे रत्ते) नीले व लाल वस्त्र पर (सेडवण्णो) श्वेतवर्ण (ण) नहीं (रंजदि) चढ़ता ॥46 ॥ ___ अर्थ-कषायभाव संयुक्त मन तत्त्व को नहीं समझता, न ही ग्रहण करता है। जैसे कि नीले व लालवस्त्र पर सफेद रंग नहीं चढ़ता है। व्याख्या-जो आत्मा को कषे, कर्मों से बांधे उसे कषाय कहते हैं। कषाय यह संसारी जीव के चारित्र गुण की वैभाविक दशा है। जब तक मोह कर्म का उदय है, तब तक कषायों का उदय बना रहता है। कषाय की सबसे हीन अवस्था दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान तक पाई जाती है। शक्ति अपेक्षा कषाय के 1. अनंतानुबंधी 2. अप्रत्यख्यान 3. प्रत्यख्यान व संज्वलन ये चार भेद हैं। जो व्यक्ति जितना मंदकषायी है, वह उतना ही शांतस्वभावी व तत्त्व को समझने वाला होता है। जो अनंतानुबंधी (मिथ्यात्व) से ग्रसित है, वह तत्त्व को नहीं समझता, जैसे कि नीले या लाल कपड़े पर श्वेत रंग नही चढ़ता है। तत्त्व को सुनना, समझना, भावना व धारण करना क्रमशः कषायों की मंदता पर निर्भर करता है। इसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस प्रकार कहा है बिरला णिसुणहितच्चं, बिरला जाणेदितच्चदो तच्चं। बिरला भावदि तच्चं, बिरलाणं धारणा होदि ॥279॥ विरले जीव तत्त्व सुनते हैं, बिरले जीव तत्त्व जानते हैं, बिरले जीव तत्त्व की भावना करते हैं तथा तत्त्व की धारणा तो अत्यन्त बिरले जीवों को होती है। 'कषायभावशून्योऽहम्'।46 ॥ जब मोह हटता है, तब वैराग्य होता है जदा हि मोह-पंकं च, बुद्धी सुट्ठ तरिस्सदि। तदा होहिदि णिव्वेदं, भोग-देहादु लोगदो॥47 ॥ भावणासारो :: 225
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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