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________________ से कर्मों (विकारों) के संचय को जानकर मिथ्यात्व, कषाय आदि का निरोधकर, औषध के रूप में समता-भाव,ध्यानादि कर्म मल को पचानेवाली औषध को ग्रहणकर स्वस्थ होता है अर्थात् कर्ममल को गला (सड़ा) कर आत्मस्थ होता है। इस कर्म झड़ने की पद्धति को ही सर्वज्ञदेव निर्जरा कहते हैं। निर्जरा दो प्रकार की है-1. सविपाक निर्जरा, 2. अविपाक निर्जरा। जो कर्म जिस स्थिति व अनुभाग को लेकर बंधा है, उसका उतने काल के बाद स्वतः गल जाना अर्थात् फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा प्रत्येक संसारी जीव को निरंतर होती है, किन्तु इस बंधपूर्विका निर्जरा से जीवों का कुछ भी हित नहीं सधता। जो कर्म जिस स्थिति (कालमर्यादा) को लेकर बंधा है, उसे तप-संयम, आत्मस्थिरतारूप तपन आदि के माध्यम से उस समय के पूर्व ही नष्ट कर देना, उसकी उदीरणा कर देना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा असंयत सम्यक्दृष्टि आदि गुणस्थानों में क्रमश: बढ़ती हुई होती है। मोक्षमार्ग में यही निर्जरा उपादेय भूत है। यह निर्जरा रत्नत्रय सहित तप से मुख्यरूप से होती है। आत्मस्वरूप में प्रतपन (तल्लीनता) ही वस्तुतः तप है। बाह्य साधना मात्र तप नहीं है। तप के मूलतः दो भेद हैं-1. अंतरंग तप, 2. बाह्य तप। जो बाह्य में प्रदर्शित न हों अथवा लौकिकजनों द्वारा न पाले (देखे) जाते हों, वे अंतरंग तप हैं। इसके छह भेद हैं-1. प्रायश्चित, 2. विनय, 3. वैयावृत्य, 4. स्वाध्याय, 5. व्युत्सर्ग और 6. ध्यान। जो बाह्य में प्रदर्शित हों अथवा लौकिक जनों द्वारा देखें (पाले) जाते हों, वे बाह्य तप हैं। इसके भी छह भेद हैं-1. अनशन, 2. अवमौदर्य, 3. वृत्तिपरिसंख्यान, 4. रसपरित्याग, 5. विविक्तशय्यासन और 6. कायक्लेश। सम्यग्दृष्टि के बाह्य तप अंतरंग विशुद्धि में कारण होते हैं। मिथ्यादृष्टि तो केवल मनमाने ढंग से तप करता रहता है, उसे परिणामों की कुछ भी समझ नहीं होती है। अंतरंग-बाह्यतपसंयुक्ततज्ञान स्वरूपोऽहम्' ॥32॥ निर्जरा का स्वामी एगल्लो णिप्पिहो संतो, पाणिपत्ती दियंबरो। झाण-ज्झयण संपण्णो, साहू करोदि णिजरं॥33॥ अन्वयार्थ-(एगल्लो) एकाकी (णिप्पिहो) निस्पृह (संतो) शांत (पाणिपत्ती दियंबरो) पाणीपात्री दिगम्बर (झाण-ज्झयण संपण्णो) ध्यान-अध्ययन संपन्न (साहू) साधु (णिज्जरं) निर्जरा (करोदि) करता है। अर्थ-एकाकी, निस्पृह, शांत, पाणीपात्री, दिगम्बर तथा ध्यान-अध्ययन संपन्न साधु निर्जरा करता है। भावणासारो :: 213
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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