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________________ संवर का अमोघ उपाय राय-दोसा दुवे पावा, सव्व-पावप्पवत्तणे। जो सुही रुंधदि दोण्णि, तिलोए सो ण हिंडदे ॥31॥ अन्वयार्थ-(राय-दोसा दुवे पावा) राग-द्वेष दो पाप (सव्व-पावप्पंवत्तणे) सभी पापों में प्रवृत्ति कराने वाले हैं (जो) जो (सुही रुंधदि दोण्णि) सुधी दोनों को रोक देता है (सो) वह (तिलोए) तीन लोक में (ण हिंडदे) नहीं भटकता। अर्थ-राग व द्वेष ये दो पाप, सभी पापों में प्रवृत्ति कराने वाले हैं, जो सुधी इन दोनों को रोक देता है वह तीन लोक में नहीं भटकता।। व्याख्या-प्रायः समस्त संसारी जीव पापों से ग्रसित हैं । यह जीव अनादिकाल से राग-द्वेष रूप पापों के वश में होकर सभी पापों में प्रवृत्ति करता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह आदि जो भी पाप हैं, वह राग-द्वेष से ही होते है। इन दोनों में राग-द्वेष मुख्य है, क्योंकि जहाँ राग होता है, वहाँ द्वेष अवश्य होता है। जैसा कि ज्ञानार्णव में कहा है यत्र रागः पदं धत्ते, द्वेषं तत्रेति निश्चयः। उभावेतौ समालम्ब्य, विक्रमत्यधिकं मनः॥ जो वस्तु जैसी है वैसी ही है अथवा जिसका जैसा परिणमन होना है, सो होता है; ऐसी समझरूप भेदज्ञान के बल से जो इन दोनों पापों को रोक देता है, वह बुद्धिमान कर्मों का संवर करता है। बार-बार संवरभावना का चिंतन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने से कर्मों का संवर होगा, संवर से निर्जरा और निर्जरा से मोक्ष होगा। 'रागद्वेषवर्जितसंवर-स्वरूपोऽहम्' ॥31॥ निर्जरा भावना कम्माणं सडणं णेयं, तवेण संवरेण य। वेरग्ग सम्मजुत्तस्स, णिजरा होदि उत्तमा॥2॥ अन्वयार्थ-(कम्माणं सडणं) कर्मों का गलना (निर्जरा) (णेयं) जानो, (उत्तमा) उत्तम (णिज्जरा) निर्जरा (तवेण य संवरेण) तप से और संवर से (वेरग्गसम्मजुत्तस्स) वैराग्य व सम्यक्त्व युक्त जीव के (होदि) होती है। __ अर्थ-कर्मों का गलना निर्जरा है। वह उत्तम निर्जरा तप से और संवर से वैराग्य व सम्यत्वक्युक्त जीव के होती है। व्याख्या-जैसे किसी मनुष्य को अजीर्ण दोष से मलसंचय हो जावे तो वह भोजन को छोड़कर, उदराग्नि को तीव्र करने वाले हरड़ (हरीतिका), हींग अथवा गर्म दूध में थोड़ा एरण्ड (अंडी) का तेल मिलाकर लेना, आदि औषधियों का सेवन करके स्वस्थ होता है। वैसे ही अनादि कर्मबंधन से बद्ध कोई जीव सम्यग्ज्ञान के बल 212 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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