SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्यत्व भावना जत्थ देहो णियो णत्थि, तत्थ बंधु-कुलेहि किं। गिहं धणं णियं णत्थि, ईसरत्तं च वेहवं ॥19॥ अन्वयार्थ-(जत्थ देहो णियो णत्थि) जहाँ शरीर अपना नहीं (तत्थ बंधुकुलेहि किं) वहाँ बंधु व कुटुम्ब से क्या? (गिहं धणं) गृह, धन (ईसरत्तं च वेहवं) ईश्वरत्व व वैभव (णियं णत्थि) आत्मीय नहीं है। अर्थ-जहाँ शरीर ही अपना नहीं है, वहाँ बंधुजन व कुटुम्ब का क्या कहना? गृह, धन, ऐश्वर्य व वैभव वस्तुत: आत्मीय नहीं हैं। व्याख्या-तैजस व कार्माण ये दो शरीर अनादिकाल से जीव के साथ लगे हुए हैं। इनके अलावा अधिकतम तीन समय का अंतर देकर औदारिक या वैक्रियक शरीर भी जीव के साथ संबद्ध होते हैं। इतना दीर्घकालीन संबन्ध होने के बाद भी वे शरीर जीव नहीं हैं। एक पर्याय के बाद दूसरी पर्याय में निश्चित समय तक रहने वाले ये शरीर तो पुद्गल कर्म की संरचना होने से जीव के हैं ही नहीं। भले ही अज्ञानता वश कोई इन्हें अपना मानता रहे। जहाँ देह ही अपनी नहीं वहाँ बंधुजन व कुटुंबीजन कैसे अपने हो सकते हैं? अर्थात् कैसे भी नहीं। इसी प्रकार घर, धन, खेत आदि तथा ऐश्वर्य और वैभव भी जीव के नहीं हैं। क्योंकि ये शरीरादि अचेतन हैं, जबकि जीव सचेतन। देहादि ऐन्द्रियिक हैं, जबकि जीव अतीन्द्रिय। देहादि मूर्तिक हैं, जबकि जीव अमूर्त। ___ जिस प्रकार तलवार म्यान से पृथक है, उसी प्रकार यह जीव शरीर से पृथक् है। एकत्वभावना में विध्यात्मक तथा अन्यत्व भावना में निषेधात्मक कथन होता है। वस्तुतः ग्रहण तो पर से पृथक् एक आत्मा का ही करना है। 'देहादिरहित अन्यत्व स्वरूपोऽहम् ॥19॥ बंधुजन बंधन तुल्य हैं बंधुणो बंधण एव, भारिया णिगडोवमा। दुस्सिंखला समं पुत्ता, कुडुबो जालसण्णिहो॥20॥ अन्वयार्थ-(बंधुणो) बंधुजन (बंधण) बंधन (भारिया) पत्नी (णिगडोवमा) बेड़ी के समान (पुत्ता) पुत्र (दुस्सिंखला समं) खोटी सांकल के समान [तथा] (कुडुबो जालसण्णिहो) कुटुम्ब जाल के समान (एव) ही है। अर्थ-बंधुजन बंधन, पत्नी बेड़ी के समान, पुत्र कठोर श्रृंखला के समान तथा कुटुम्ब जाल के समान ही है। ___व्याख्या-संसार में मोह का बंधन सबसे बड़ा है। कठोर लकड़ी में भी छेद कर डालने की सामर्थ्य रखने वाला भ्रमर कमल की पराग में मस्त हो कर प्राण तक दे देता है। उसी प्रकार मोह के वशीभूत हुए संसारीजन घर-परिवार में दु:ख और 202 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy