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________________ अन्वयार्थ-(खीरे घिदं) दूध में घी (तिले तेगं) तिल में तैल (क॰ग्गी) काष्ठ में अग्नि (सुमे सुरही) सुमन में सौरभ [तथा] (चंदक्कंते पिऊसव्व) चन्द्रकांत मणि में सुधा के समान (अप्पा देहे हि संजुदो) आत्मा देह से संयुक्त है। अर्थ-जैसे दूध में घी, तिल में तैल, काष्ठ में अग्नि, सुमन में सौरभ तथा चन्द्रकांत मणि में अमृत के समान आत्मा देह से संयुक्त है। व्याख्या-विश्व में मुख्यतः छह द्रव्य हैं। वे एक-दूसरे में मिलकर रहते हुए भी एकमेक नहीं हो जाते, अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। जीव व पुद्गल ये दोनों पृथक् पृथक् द्रव्य हैं, किन्तु अनादि काल से संसारदशा में दोनों मिले हुए हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह कि दूध में घी, तिल में तैल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में सुगंध तथा चन्द्रकांतमणि में अमृत। यह एकमेक होते हुए भी अपने स्वरूप का त्याग नहीं करते। जैसे दूध में घी व्याप्त है, किन्तु वह सम्यक् पुरुषार्थ से पृथक् हो जाता है; वैसे ही देह में आत्मा है, वह भी सम्यक् पुरुषार्थ से पृथक्-पृथक् हो सकते हैं। चार आराधनाओं के बल से आत्मस्वरूप में गहन स्थिरता करने पर यह नित्य-निरंजन, परमशुद्ध, अतीन्द्रिय, केवलज्ञान संपन्न आत्मा कर्म-नोकर्म से पृथक् होकर स्वयं ही प्रकाशमान होता है। 'कर्म-नोकर्मशून्योऽहम्' 16 ।। ____ आत्मा का योग व वेदों से भी एकत्व नहीं है णाहं मणो ण वाणी वा, णो वण्णो णो सरीरयं। ण इत्थी पुरिसो ण ण संढो एए हि पोग्गला॥17॥ अन्वयार्थ-(अहं) मैं (मणो) मन (ण) नहीं हूँ. (ण वाणी) वाणी नहीं हूँ (णो वण्णो) न वर्ण हूँ (णो सरीरयं) न शरीर हूँ, (ण इत्थी ण संढो) न स्त्री हूँ, न नपुंसक हूँ (ण पुरिसो) न पुरुष हूँ (हि) वस्तुतः (एए) ये सब (पोग्गला) पुद्गल हैं। अर्थ-मैं मन, वचन, काय रूप, वर्ण वाला नहीं हूँ, मैं स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक भी नहीं हूँ, वस्तुतः ये सब पुद्गल की रचनाएँ हैं। व्याख्या-निर्विकार, चिच्चमत्कार लक्षण वाले आत्मद्रव्य से स्पर्श, रस, गंध व वर्ण स्वभाव वाले पुद्गल द्रव्य एकदम पृथक् हैं। स्वर्ण पाषाण के समान इन दोनों का अनादि काल से संश्लेष सम्बंध बना हुआ है, किन्तु इनके लक्षणों की पहचान से इनके सम्बन्ध को मिटाया जा सकता है। क्योंकि इनका तादात्म्य अथवा समवाय सम्बन्ध नहीं, अपितु संश्लेष सम्बन्ध है। संश्लेष का अर्थ है दो पृथक्-पृथक् द्रव्य जिनका मजबूत सम्बन्ध हो गया है। तीसरा संयोग सम्बन्ध होता है। टंकोत्कीर्ण, चिद्धन, निरामय, निजात्म चैतन्य द्रव्य का ध्रुवदृष्टि से अवलंबन करने पर योग, वेद व अन्य समस्त वैभाविक भाव पृथक् भासने लगते हैं। योग व वेद जीवात्मा में पुद्गल कर्मों के विपाक से प्रगट होते हैं, वे जीव का स्वभाव नहीं हैं। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचकवर्ती ने गोम्मटसार जीवकांड में लिखा है200 :: सुनील प्राकृत समग्र .
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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