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________________ आत्मा की शाश्वतता जादस्स हि धुवो मिच्चू, धुवं जम्मं मडस्स य। तम्हा चत्ता वियप्पाणि, णियप्पम्मि थिरो भव ॥10॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (जादस्स) उत्पन्न हुए की (मिच्चू) मृत्यु (धुवो) निश्चित हैं (य) और (मडस्स) मरे हुए का (जन्म) जन्म (धुवं) निश्चित है (तम्हा) इसलिए (वियप्पाणि) विकल्पों को (चत्ता) छोड़कर (णियप्पम्मि) निज आत्मा में (थिरो भव) स्थिर होओ।। अर्थ-जन्म लेने वाले का मरण निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इसलिए विकल्पों को छोड़कर निजात्मा में ही स्थिर होओ। व्याख्या-संसार में मुख्यतः सात प्रकार के भय हैं-1. इहलोकभय 2. परलोकभय 3. अगुप्तिभय 4. अरक्षाभय 5.मरणभय, 6. वेदनाभय, 7. आकस्मिक भय। जिन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त हुई है, वे इन भयों से रहित होते हैं। क्योंकि वे जानते है कि यह मैं जीवात्मा वस्तुतः मरण वाला नहीं, अपितु निज ज्ञान चैतन्य से सदा जीवन वाला हूँ। जब मैं ज्ञान-दर्शन-सुखमय शाश्वत अमूर्तिक चैतन्य द्रव्य हूँ, तब भय कैसा? संसार में मरण भय सबसे बड़ा है। सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्रिय जीव से लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य तक कोई भी सहजतः मरना नहीं चाहता, किन्तु यह अटल सत्य है कि पर्याय स्वरूप से कोई अमर नहीं है, मरना सबको पड़ता है। जो इस मरण तथा निजचैतन्य के अनंत जीवन को समझ लेते हैं, वे समस्त प्रपंच त्यागकर, समाधिपूर्वक देह विसर्जन कर आत्मोपलब्धि की दिशा में बढ़ते हैं। संसारदशा में जन्म-मरण की अटल सत्ता को जानकर बुद्धिमंत आत्मस्वरूप का लक्ष्य कर समस्त विकल्पों को छोड कर निजात्मा में ही स्थिर होते हैं, क्योंकि व्यवहार से पंचपरमेष्ठी व निश्चय से एक निजात्मा ही शाश्वत है। 'शाश्वतस्वरूपोहम्'॥10॥ कौन बुद्धिमान धन की रक्षा करता है धणं रयोणिभं णिंद, दुहं-चिंतादि सायरं। महारंभा य पावादो, पत्तं को रक्खदे सुही॥11॥ अन्वयार्थ-(धणं रयोणिभं जिंदं) धन धूल के समान निन्दनीय (दुहंचिंतादिसायरं) दु:ख चिंतादि का सागर [और](महारंभा य पावादो) महान आरंभ व पाप से (पत्तं) प्राप्त [धन की] (को) कौन (सुही) सुधी (रक्खदे) रक्षा करता है। अर्थ-धन धूल के समान निन्द्य, दु:ख चिंतादि का सागर तथा महान आरंभ व पाप से प्राप्त होता है, ऐसे धन की कौन बुद्धिमान रक्षा करता है। भावणासारो :: 195
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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