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________________ संरचना है। पुद्गल की परिभाषा ही है कि जो पूरण- गलन स्वभाव वाला हो वह पुद्गल है। जिसके उदय से संसारावस्था में जीव जीवत्वदशा को प्राप्त होता है अथवा एक सुनिश्चित शरीर में रहता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्म भी पुद्गलों का ही एक विशेष प्रकार का संचय है, यह भी धीरे-धीरे क्षय को प्राप्त हो जाता है। जिस अवस्था विशेष में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ को साधने की विशिष्ट योग्यता होती है, उसे यौवन कहते हैं । पर्याय दृष्टि से शरीर, आयु व यौवन अमूल्य हैं । इनका विनाश होने के पहले ही आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । आत्मकल्याण मुक्ति प्राप्त कर लेने में है, और मुक्तात्मा ही अनंत ज्ञान - दर्शनानंदादि गुणों से संयुक्त है । 'अनंतचतुष्टय सहितोऽहम् ' ॥8 ॥ 1 आत्मकल्याण का अवसर छिज्जदि जाव आऊ णो, सत्ती य जोव्वणादिगं । ताव कुज्जा तवं छिन्द, मोहजालं मुमुक्खुओ ॥ 9 ॥ अन्वयार्थ - (जाव) जब तक (आऊ) आयु (सत्ती) शक्ति (य) और (जोव्वणादिंगं) यौवनादिक (णो छिज्जदि) क्षीण नहीं होते (ताव) तब तक (मुमुक्खुओ) मुमुक्षुजन ( तवं ) तप (कुज्जा) करें [तथा ] ( मोहजालं) मोहजाल को (छिन्द) छेद डालें । अर्थ- जब तक आयु, शक्ति और यौवन आदि क्षीण नहीं होते, तब तक मुमुक्षुजन तप करके मोहजाल को छेद डालें । व्याख्या - यह मानव देह पाकर आत्मकल्याण ही करने योग्य कार्य है । यह बात लक्ष्य में लेना कि यह जीव सिद्धसदृश अनंत गुणसंपन्न परमात्मा है । किन्तु अपने अपने स्वभाव की ओर दृष्टि न होने से यह दुःख - संताप भोगता हुआ, भवभ्रमण कर रहा है। यदि अपने ध्रुवस्वभाव की ओर यह लक्ष्य देवे तो संसार बंधन टूटते देर नही लगे । इस मानव पर्याय की सार्थकता तभी है, जब कम से कम अपने मोक्ष जाने के कार्यक्रम का सम्यग्दर्शन प्राप्तकर उद्घाटन कर दिया जाए। यह तभी ज्यादा संभव है जब शारीरिक, मानसिक व वाचनिक शक्ति हो, युवावस्था हो, साहस हो, धैर्य तथा तर्कबुद्धि हो । युवावस्था तथा धन व पद पाकर मनुष्य प्रायः अहंकार में डूब जाते हैं, उन्हें होश नहीं रहता कि ये सब क्षणिक और वैभाविक हैं। अरे ! उत्तमोत्तम सामग्री प्राप्तकर तो निज विज्ञानघन, आनंदस्वरूप की साधना कर तप के द्वारा मोह (मिथ्यात्व) रूपी जाल छेद डालने योग्य है । 'मोहजालछेदकोऽहम्' ॥१॥ 194 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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