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________________ सम्मान और ख्याति पाता है, किन्तु निरुद्योगी व्यक्ति केवल मृत्यु ही पाता है और कुछ नहीं। सरीर-णिरवेक्खस्स, दक्खस्स ववसाइिणो। पुण्णजुत्तस्स धीरस्स, णत्थि किंचि वि दुक्करं ॥87॥ अन्वयार्थ-(सरीर-णिरवेक्खस्स) शरीर से निरपेक्ष (दक्खस्स) दक्ष (ववसाइणो) उद्योग-शील (पुण्णजुत्तस्स) पुण्य-युक्त [और] (धीरस्स) धीर व्यक्ति के लिए (किंचि वि) कुछ भी (दुक्कर) दुष्कर नहीं है। भावार्थ-जो शरीर से निरपेक्ष (शरीर के नष्ट होने की भी चिन्ता नहीं करता), दक्ष अर्थात् अत्यन्त चतुर, निरन्तर उद्यम-शील, पुण्य-कर्म से युक्त तथा धैर्य-गुण से युक्त हैं, उसके लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। उच्च-पद, अकूत धन-सम्पत्ति और ख्याति-लाभ की इच्छा रखने वाले में ये गुण अवश्य होने चाहिए। ये बढ़ाने से बढ़ते हैं उज्जोगो कलहो कण्डू, जूओ मज्जं परत्थी य। आहारो मेहुणं णिद्दा, वड्ढ़ते सेवमाणा हि ॥88॥ अन्वयार्थ-(उज्जोगो कलहो कण्डू जूओ मज्जो परत्थी य आहारो मेहुणं णिदा) उद्योग, कलह, खुजली, जुआ, शराब-सेवन, पर-स्त्री सेवन, आहार, मैथुन और निद्रा (सेवमाणा) सेवन करते हुए (वड्ढते) बढ़ते हैं। भावार्थ-उद्योग-व्यापार, कलह-झगड़ा, खाज-खुजली, जुआ-लाटरी अर्थात कोई भी हार-जीत का खेल, शराब अथवा कोई भी नशीली वस्तु, पर-स्त्री का सेवन, भोजन, मैथुन और निद्रा इनका जितना सेवन करते जाओ, उतनी ही इनके सेवन की इच्छा बढ़ती जाती है, घटती नहीं है। इनकी दुर्दशा होती है। देवणिंदी दलिदो हि, गुरु-णिंदी य पादगी। सामी-णिंदी हवे कुट्ठी, गोद-णिंदी कुलक्खयी॥89॥ अन्वयार्थ- (देवणिंदी) देव-निन्दक (दलिद्दो) दरिद्र (गुरु-णिंदी) गुरुनिन्दक (पादगी) पातकी (सामी-णिंदी) स्वामी-निन्दक (कुट्ठी) कुष्ठी (य) और (गोद-णिंदी) गोत्र-निन्दक (कुलक्खयी) कुल-क्षयी (हि) निश्चित ही (हवे) होता भावार्थ-सच्चे देव की निन्दा अथवा साधारण देव की निन्दा करने वाला लोग-णीदी :: 159
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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