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________________ (सुपीदिमंतं) अत्यन्त प्रीतिमत्ता (हि) निश्चित ही (णस्संति) नष्ट हो जाते हैं। __ भावार्थ-अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन सेवन (कुशील) से आयु, तेज, शारीरिक शक्ति, विद्या, प्रज्ञा, धन-सम्पत्ति, महायश महान् ख्याति, पुण्य और लोक से प्राप्त अत्यन्त प्रेम पात्रता का निश्चित ही विनाश हो जाता है। अतः मैथुन सेवन से बचना चाहिए। यदि ऐसी क्षमता नहीं है तो कम से कम परस्त्रियों से तो दूर रहना ही चाहिए। परिग्रह वर्जन मणे मुच्छाकरं माया-चिंतादि-दुह-सायरं। तिण्हाबल्लीइ णीरं व, चएज्जा हि परिग्गहं॥25॥ अन्वयार्थ-(मणे मुच्छाकरं) मन में मूर्छा करने वाले, (माया) माया को बढ़ाने वाले (चिंतादि-दुह-सायरं) चिंतादि दु:खों के सागर (च) और (तिण्हाबल्लीइ णीरं व) तृष्णारूपी बेल को बढ़ाने के लिए जल के समान (परिग्गहं) परिग्रह को (चएज्जा हि) छोड़ो। भावार्थ-मन में ममत्व, माया-चंचलता, दुष्कृत्य करने की भावना उत्पन्न करने वाले, चिंता, शोक आदि दुःखों के समुद्र के समान और लोभरूपी बेल को बढ़ाने के लिए पानी के समान परिग्रह को अवश्य ही छोड़ देना चाहिए। यदि कोई परिग्रह का पूरी तरह त्याग नहीं कर सकता है तो उसे कम से कम परिग्रह परिमाण अणुव्रत लेकर मर्यादा तो बना ही लेना चाहिये। परिग्रह दुःख का कारण दुहेण पप्पदे लच्छी, ठिदा दुक्खेण रक्खदे । तण्णासेण महादुक्खं, लच्छिं दुक्खणिहिं च धी॥26॥ अन्वयार्थ-(लच्छी) लक्ष्मी (दुहेण) दुःख से (पप्पदे) प्राप्त होती है, (दुक्खेण) दुःख से (ठिदा) ठहरती है (रक्खदे) रक्षित होती है (तण्णासेण) उसके नाश से (महादुक्खं) महादुःख होता है [ऐसी] (दुक्खणिहिं) दु:खनिधि (लच्छिं) लक्ष्मी को (धी) धिक्कार है। भावार्थ-लक्ष्मी, दुःख से प्राप्त होती है, दुःख से ठहरती है, कष्ट से रक्षित होती है, उसके नाश से महादुःख होता है, ऐसी दुःख की खान धन-संपत्ति रूपी लक्ष्मी को धिक्कार है। मानव जन्म के फल देवपूया दया दाणं, तित्थजत्ता जवो तवो। सुदं परोवगारित्तं, णरजम्मे फलट्ठगं ॥27॥ णीदि-संगहो :: 137
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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