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________________ तं सम्मदिं विमलसागर-वच्छलत्ते दाणं कुणेदि अणुवच्छल-भाव-सीलो। पूजा-विहिं बहुविहाण-समासिएज्जा पुण्णे हवेदि चदुमास-तवे हु झाणे॥7॥ आ. विमलसागर वात्सल्यमूर्ति थे, इसलिए विमल (पवित्र क्षीर) सागर की तरह उन सन्मतिसागर को वात्सल्य प्रदान करते हैं। तप एवं ध्यान में ही चातुर्मास पूर्ण होता है तथा विविध पूजा विधि-विधान भी समायोजित किए जाते हैं। 8 उल्लास-उच्छव-महुच्छव-पच्छ-वासो णंदेज्ज सावग-जणा सुधि-साविगाओ। तित्थे तलेहटि-सुठाण-सुसिद्ध-सिद्धं लाहं दएदि सयला विहरेंति तत्तो॥8॥ उल्लास, उत्सव, महोत्सव आदि के पश्चात् वर्षावास में श्रावक-श्राविकाएँ आनंदित होती हैं। सम्मेदशिखर के पश्चात् बाराबंकी में उन सिद्ध आत्माओं के स्थान को लाभ लेते फिर वहाँ से विहार कर जाते हैं। गामे पुरे णयर-पंत-अरण्ण-खेत्तं तित्थाणं वंदण-कुणंत-तवं तवंतं। सीदे ण कंपण-मुहे ण मिलाण भावो सीहो समो चर चरंत-पदेसमज्झे ॥१॥ ग्राम, पुर, नगर-प्रान्त, अरण्य, नीर आदि क्षेत्र को पार करते हैं। वे तीर्थो की वंदना में तप तपते हुए शीत में मुख पर कम्पन नहीं लाते, वे अम्लान भावी सिंह सम विचरण करते हुए मध्यप्रदेश में प्रवेश कर जाते हैं। 10 वाराणसिं सिहपुरि अवि चंद गामं सिद्धाण ते अदिसयाण अणेग-धामं। पावागिरिं परमसिद्धय-ऊण-ठाणं णिव्वाण खेत्त वडवाणि-सुखेत्त-पत्ते॥10॥ संघ वाराणसी, सिंहपुरी, चंद्रपुरी आदि सिद्धक्षेत्रों, अतिशय क्षेत्रों के अनेक धाम को प्राप्त हुआ। वह पावागिरि ऊन परम स्वर्ण भद्रादि के स्थान निर्वाण क्षेत्र एवं सम्मदि सम्भवो :: 87
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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