SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम सम्मदी मुणि-दिक्खाए पढम-चाउम्मासो दिक्खेज्ज भाव-विमलं विणिवेददे सो णाएदि सो वि विमलो तवसिं च णाणिं। तं खुल्लगंजध तधेव सुआण-दाणं कुव्वेदि ताहु सयले घणमेह-सक्खी ॥1॥ जैसे ही दीक्षा के भाव आ. विमलासागर जी को व्यक्त किए वैसे ही वे विमल इस तपस्वी एवं ज्ञानी क्षुल्लक को आज्ञा दान करते तब सर्वत्र घनें मेघों की साक्षी रहती है। कत्तिल्लमास-अड-अण्हिग-मास-सोम्मो हारिल्ल-कंति-मण-भावण-मेह-माला। दिक्खादु पुव्व-अमरेहि हु ओहिणाणे दिव्वा हु पाउस पिऊस-कुणंतभावा ॥2॥ कार्तिक माह की अष्टह्निका का सौम्य वातावरण, हरित-क्रान्ति (चारों ओर हरियाली) एवं मन भावन मेघों की माला थी। सो ठीक है दीक्षा से पूर्व अमरों के अवधि ज्ञान में ऐसा आया हो तभी तो दिव्य प्रावृट् पीयूष करते हुए आ गये। २ संघे हु सूरि विमलो उणबीस-संवे वासट्ठ-सण्ण-अणुपूरि-जएज्ज अज्ज। सम्मदि सम्भवो :: 85
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy