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________________ मुनिसंघ यहाँ आया, सम्मेदशिखर को प्राप्त हुआ, इसके ऊपर की वंदना करता समग्र सिद्धों के सिद्धस्थान की। वे सभी प्रसन्न और क्षुल्लक नेमिसागर भी आनंदित मानो यहाँ परमार्थ के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर रहे हों। 54 सम्मेद सेल-परमत्थ-विसाल खेत्तो पुव्वे पुरे महुवणे अवि ईसरी वि। वंदेज्ज अत्थ जिणगेह-जिणाण पच्छा गच्छेति धम्मथलए सयला मुणीसा ॥54॥ वास्तव में सम्मेदशैल परमार्थ में विशाल क्षेत्र (शाश्वत तीर्थक्षेत्र) है। सबसे पहले मधुबन में जाते, फिर ईसरी यहाँ जिनगृहों के जिनबिंबो की वंदना करते, फिर धर्म स्थल की ओर मुनि संघ चलते हैं। ईसरी पवासो 55 अत्थेव ईसरि पुरे हु गणेस-वण्णी सम्मं च सम्म-समहिं अणुपत्तएज्जा। सामण्ण-भत्त-पुर-वासि-सुसावगा ते आहारएज्ज विहिपुव्व-सुसेव-कुव्वे॥55॥ यहाँ ईसरी में ही गणेश प्रसाद वर्णी सम्यक् समाधि को प्राप्त हुए थे। श्रमणभक्त पुरवासि श्रावक विधिपूर्वक उत्तम सेवाभाव करते हैं। 56 संघे तवी मुणवरा परमत्थ-सुत्ती तेसिं गुणीण सुदभत्ति-सुतित्थगाणं जे कोलकत्त मुणिभत्त जणा वि सव्वे वंदेति सम्म-सयलं चदुमास-भासे ॥35॥ संघ में तपस्वी मुनिवर थे, वे परमार्थ सूत्री थे। उन श्रुतभक्ति युक्त तीर्थ मार्गी गुणियों की सभी कलकत्ता वासी मुनिभक्त वंदना करते हैं और वे सभी चातुर्मास का निवेदन करते हैं। 57 सेट्ठी हु संति-मुणि भत्त-सुसावगो वि आगच्छिदूण कचलुच-मुणिं च पुच्छे। सम्मदि सम्भवो :: 79
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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