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________________ उपहत्त-ताव तवमाण सरीर-तावं णं अंतराय पद कंकड दुक्ख रोहं॥45॥ वे नेमिसागर एक प्रदेश (उत्तर प्रदेश) से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में विचरण करते हुए गर्मी की ताप से तप्त शरीर (बुखार) से पीड़ित मानो अंतराय पर अंतराय बाधाएँ मानते, पद में कंकर के दुःख को सहते हैं। 47 संघे पबुद्ध अदिबुड्ड-मुणी वि अस्थि ते तिंस तिंसय-किलो कध गच्छएंति। सूरी-सुरेण विमलेण मुदा भवंति चित्ता दिघे चकिए सयलासणेज्जा147॥ संघ में प्रबुद्ध, अतिवृद्ध मुनि भी थे। वे तीस-तीस किलोमीटर कैसे चल सकते, फिर सूरी के स्वर-विमलवाणी से वे विमल परिणामी होते हैं। चित्रा दिघे चौका में असन (आहार योग्य-शुद्ध आहार) तैयार करती है। 48 खंडंगिरिं च उदयं च कलिंग भूमि फासेंति मेह खरवेल जिणग्ग चंदं। हत्थिं च राणिगुह सिप्प कलंच दंसे। गच्छेति संघ कडगे जिण भत्त वेदे॥48॥ यह संघ खंडगिरि, उदयगिरि की कलिंगभूमि को स्पर्श करते हैं। यहाँ के सम्राट् मेहवाहन, खारवेल एवं जिनाग्र (जिनभक्त) चंद्रगुप्त को भी स्मरण करते हैं। हाथीगुंफा एवं रानी गुफा की शिल्प कला को देखते हैं इसके अनंतर संघ कटक में प्रवेश करता, तब कटकवासी जिनभक्त चातुर्मास का निवेदन करते हैं। 49 ते सव्व भत्त-जिण-सासण-अग्ग-भूदा साहूण भत्ति पडि सेवग-भाव-जुत्ता। विस्साम-दाण-पमुहा अदिणाम णंदा कुव्वेंति सेव-असणादु अणेग-भत्ता॥49॥ वे सभी भक्त जिनशासन में अग्रणी साधुओं की भक्ति सेवा भाव युक्त विश्राम दान में प्रमुख होते हैं, वे अतिनम्र अति आनंदित आहारादि से सेवा को करते सम्मदि सम्भवो :: 77
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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