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________________ 11 काले घणा वि सघणा धवलाकिदीए इंदेण संग-सर-आसण भूद मेहा। जत्थेव तत्थ विचरेज्ज णहंगणे ते किण्हा घणाघण-झुणिं कुणएंति अत्थ॥ काले सघन धवल इन्द्र धनुष के साथ मेघ इधर-उधर गृहाँगण में विचरण करते हैं और वे कृष्ण मेघ होकर घन-घन ध्वनि को भी करते हैं। 12 लोएंति खेत्त-किसगा अदि तुट्ठ भूदा बाहुल्ल-खेत्त-पमुहा णयणेहि णिच्चं। काले गदे हु वरिदंस विसण्ण जुत्ता किं मे किदं अधम-चिन्तमणा वि जादा॥12॥ वे मेघों से अतितुष्ट कृषक खेतों की बहुलता वाले नयनों से नित्य काले होते हुए देखते खिन्न हो जाते हैं वे सोचते मैंने ऐसा कौन सा अधम किया। 13 किंचिं च काल-मणुहारि-पसद्दमाण। भित्तिं गिरिं वण-वणप्फदि-हण्णमाणा। ते चादगाण महुराण मयूरगाणं मुत्ताहिसेग-कुणमाण-सुखेत्त-सिंचे॥13॥ किंचित् समय पश्चात् मनोहारी शब्द करते हुए वनों की वनस्पतियों और पर्वत कूटोंसे टकराए हुए चातकों एवं मयूरों के लिए माधुर्य का दान अपनी भुजाओं के अभिषेक से (जलकणों से) क्षेत्रों को सींच देते हैं। __ 14 बालो-समो हु अणुचारि-भवंत-एसो णं चादगो विजणणीअ पयोधरेहि। पाणं कुणेदि पयपाण-पसण्ण भूदो पेम्मी इमो घण घणंबु-जुदं च मेहं॥14॥ यह बाल सदृश चपल मानो चातक की तरह जननी के पयोधरों से पयदान से प्रसन्न हो। इसी तरह इस क्षेत्र में बादलों को जलबिंदुओं से यह मेघा को बढ़ाना चाहता हो इसलिए यह क्षेत्र आपसी प्रेम वाला है। 46 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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