SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पइत्ता ssss |||| 5 52 मिच्छादिही जण-तिरिया, दिदी धम्मा जय-जयला। रोहे रोहे ण हु बहिरा, सदा सद्दे जय वसिरा ॥2॥ धर्म दृष्टि यदि है तो जयजय रुचिकर लगता है, पर मिथ्या दृष्टि जन या तिर्यंच इसमें व्यवधान डालते ही हैं। ये मानते नहीं, इसलिए जय शब्द के जयकार को रोकना श्रेयस्कर समझा आचार्य जी ने। सारंगिका ।।। ऽऽ ।।ऽ = 9 वर्ण 53 णह-सिग दंता पसुए, कर कय ते मणुजे। णहु वि विसासं कुणहे, सर-कर हत्थे विरहे ॥53॥ इस जगत में नख, सींग एवं दांत वाले पशुओं, क्रूर-कृतांत मनुष्यों एवं जो हाथ में बाण लिए हुए चल रहा तो उस पर विश्वास नहीं करे। बिंब ।।। ।। ऽऽ = 9 वर्ण .54 चलदि विहरेज्ज संघो, समय समएज्ज देसो। मुणि-जण-विसाम-काले, पवयण-पवेज्ज माले॥54॥ __ संघ गतिशील रहता है, समय से समय देशना युक्त। मुनिजन अपने विश्राम के क्षणों में उनके प्रवचन या स्वाध्याय से लाभ पाते हैं। ___55 फासे चरण-चारित्तं, हीणस्स णूण णो कदा। तित्थ-सत्थ-रमेज्जझाणं, अप्पविसुद्धि-कारणं 155॥ चरण चारित्र-आचरण वाले के छुए जाते हैं, हीन या कम चारित्र वाले के 192 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy