SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्तो वि उण्ह-तवणे झुमरिं तलेयं पारीसहं च उसणं सहमाण-सव्वे॥41॥ हरदिया ग्राम में पहुँचने पर अंतराय को प्राप्त मुनिश्री सुनीलसागरजी आगे जाने में असमर्थ हो गये, फिर भी उष्ण तपन में झुमरितलैया उष्ण परीषह सहन करते हुए पहुँचे। 42 विस्साम पच्छ सरियाइ पइट्ठ वेदिं किच्चा सिरी महुवणे हु पवेस काले। आरेण्हए हुजल-मेहदुमग्ग-मग्गे कुव्वेज्ज सीदल-पहं सुहसागदत्थं ॥42॥ विश्राम के पश्चात् सरिया में वेदी प्रतिष्ठा करके श्री संघ जैसे ही मधुवन में प्रवेश हुआ वैसे ही मार्ग मार्ग में मेघों ने अपराह्न जल सिंचित कर पंथ को शीतल किया उनके सुखमय स्वागतार्थ। 43 कल्लाण-णिक्किदण-पाडिकमण्ण किच्चा सामाइगे रद इमो पभए असीदी। साहू सुसागदहिदं च-हिबिंस-कोढिं . पत्तेज्ज-दिक्ख-गुरु-ठाण-समाहि-दसे ॥43॥ संघ कल्याण निकेतन में प्रतिक्रमण कर सामायिक में रत हो गया। फिर प्रभात में अस्सी (80) साधु सुस्वागत के लिए आए। संघ बीस-पंथी कोठी पहुँचा, वहाँ पर दीक्षा गुरु विमलसागर के समाधि स्थान के दर्शन करता है। सिद्धाण भूमि-पडि-खेत्त-समोसरणं दारं च माणथव-सत्तयभू-पहं च। सिंहासणं छदतयं तरुकप्प आदि सज्जेज्ज ठाण सुहुमेण सु दिट्ठिणा सो144॥ सिद्धियुक्त सिद्धों की भूमि के प्रत्येक क्षेत्र समवशरण के द्वार, मानस्तंभ, सप्तभू, प्रभामंडल, सिंहासन, छत्रत्रय एवं कल्पतरु आदि को सुसज्जित देखते हैं सूक्ष्म दृष्टि से। सम्मदि सम्भवो :: 167
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy