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________________ राणीपुरपावणा 13 सो संघ गच्छ सकरार-पुरादु पच्छा राणीपुरं उसण - वे सहकाल दिण्णे । एगंतरोवगद-वास- मुणीस- साहू केसं च लुंचसमए वरसेज्ज मेहा ॥13 ॥ वह संघ गतिशील भी सकरार से रानी पुर को प्राप्त हुआ । वैशाख की उष्णता और उसमें एकान्तर उपवास शील मुनीष की चर्या भी कठिन थी । यहाँ पर केशलोंच होते की मेघ बरसने लगे । 14 अच्छेर सावग जणा वि विरोहि सव्वे जत्तार - जण्ण-सुद-उच्छव पंचमीए । कट्ठासणे गद- मुणीस-गणी सुसंघो राजेज्ज पावण पिऊस हु वाहि जादो ॥ 14 ॥ सभी विरोधी एवं श्रावक जन आश्चर्य को प्राप्त हुए जब जतारा में भी सम्यक् यत्न पूर्वक श्रुत पंचमी उत्सव मनाया गया। इधर आचार्य श्री एवं साधुओं का संघ जैसे ही काष्ठासन पर बैठा, वैसे ही पावन पीयूष मेघ बरसने लगे। मुनिश्री सुनीलसागरजी को कुछ ब्याधि हो गई । 15 जो संजमी हवदि तस्स सरीर - पीडा पारीसहं च मुणिदूण इथं ण पेक्खे। हल्दी - गमार- उसणं अणुलेव-लेवे तत्तो सुरिंद-भिसगेण सुपेरणेणं ॥15॥ जो वैद्य सुरेन्द्र की प्रेरणा से हल्दी एवं गमार- पाठों के उष्णलेप के लेप से स्वास्थ्य लाभ को प्राप्त हुए । सो ठीक है। एक ओर औषधी तो दूसरी ओर संयमी उनके शरीर की पीड़ा आदि मुनिराज परीषह मानकर उस ओर दृष्टि नहीं करते हैं । 16 एसो तवस्सि - मुणिराज - सदा पसण्णा संकं समाधण- गदं तवसे पउत्तो । तक्कं गिदि हु विहिं अणुमोददे सो दिद्दल्ल-भक्ख- अभखं विणु पक्क दुद्धे ॥16 ॥ सम्मदि सम्भवो :: 159
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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