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________________ आसीस-पत्त-जल-संचय-कूव-मज्झे संपुण्ण-मंगलमयी सुह-कामणाए॥45॥ आचार्य श्री संघ का चन्द्रप्रभु एवं मुनिसवत नाथ के क्षेत्र में प्रवेश हुआ। वहाँ पर कूप में जल नहीं था। परन्तु आचार्य श्री के मंगल-आशीष एवं शुभ कामना से कूप में जल संचय हो गया। 46 अच्छेर-सव्व-णयरे जण-माणुसम्हि सल्लेहणं सुमदि-अज्जि-सुसेव-भावे। अज्जीविसुद्धिय-सुबुद्धिय-कारणेणं अंते समाहि-विहि-सूरि-कुणंत सग्गं॥46॥ इससे नगर के जन जन में आश्चर्य हुआ। इधर सुमतिमति आर्यिका सल्लेखना को प्राप्त हुई। तब आर्यिका विशुद्धमति एवं आर्यिका सुबुद्धिमति के कारण से अंतिम समाधि को प्राप्त स्वर्ग की विधि आचार्य करवाते हैं। 47 अत्थेव वास-उववास-पहावणा वि पज्जुस्सणम्हि बहुसावग-साविगाओ। णिट्ठावणं च महवीर-विमोक्ख-कालं अस्सीइ दिक्ख-दिव-आदिमुणिंद जादो॥47॥ इधर वर्षावास में उपवास की प्रभावना पर्युषण में श्रावक श्राविकाओं ने की। चातुर्मास निष्ठापन हुआ, फिर महावीर निर्वाण और आचार्य आदिसागर का 80वाँ दीक्षा दिवस मनाया गया। 48 चंदप्पहुँ जिणगिहं अणुदंसणत्थं मोमुक्खु-मंडल-जणा वि समत्त-दिढेिं। पत्तेज्ज धम्म-मह-भत्ति-सुसज्झ-लाहे दोसा मणे ण हिय-सुद्धदसा हु सम्मा॥48॥ चन्द्रप्रभु जिनगृह मुमुक्षुओं का था। वहाँ दर्शनार्थ गये। वे मुमुक्षु मंडल वाले समत्व दृष्टि को प्राप्त हुए। उन्होंने धर्मभावना, उत्तम भक्ति सहित स्वाध्याय लाभ को प्राप्त किया। मन में दोष नहीं जिसके वे सम्यक् शुद्ध दशा वाले होते हैं। सम्मदि सम्भवो :: 145
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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