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________________ पश्चात् संघ भिण्डर-ग्राम को प्राप्त हुआ। 24 अज्जी-विसुद्ध-मदि-गाणितयण्हु वत्थु सक्किद्द पाइय सुगंथ विदण्हु-सत्थं। पण्णा गुरुस्स गुरुणी वि असीस-जुत्ता सा णंदणे धरियवाद समाहि पत्तं ॥24॥ आर्यिका विशुद्धमति जी गणित, वास्तुविद संस्कृत-प्राकृत के शास्त्र सिद्धान्त की ज्ञाता थीं। वे भिंडर में थी तब सन्मतिसागर का आशीष युक्त नंदनवन धरियावाद में समाधि को प्राप्त हुई। 25 सो वंसवाड-णयरे कुणदे तवं च एगंतरं अजिय देवमदीइ लेहो। सालुंबरे हवदि दिक्ख-सिवो हु णामो सिद्धो वि साहु सुदसाहग साहणो हु॥25॥ आचार्य श्री वांसवाड़ा नगर में एकान्तर तप करते हैं। यहाँ ही अजितमति एवं देवमति आर्यिका सल्लेखना पूर्वक समाधि को प्राप्त हुईं। सलूम्बर में शिवसागर एवं सिद्धसागर दीक्षित हुए। यहाँ वे श्रुतसाधक बने रहे। 26 अट्ठासिजण्णवरि पच्चिस-सावलाए सोवण्णगो जय-जयंति महच्छवो वि। सो मुत्ति-णायग-गणी वि सिरोमणी वि सो ओबरीइ सुमदिं सुमदिं लहेज्जा ॥26॥ सन् 1988 जनवरी 25 के दिन (माघ-शुक्ला सप्तमी) मुक्तिपथ नायक संत शिरोमणि'उपाधि से भूषित स्वर्ण जयन्ती महोत्सव सावला के श्रावकों के द्वारा मनाया जाता है। यहाँ से ओबरी में (सोगगढ़ पंथी) एक श्रावक सुमति सागर बन सुमति को प्राप्त होता है। सागवाड़ा चातुर्मास 27 मोमुक्खु मोक्खपह गामि-तणस्स रागी णो जायदे परम-अप्प-विसुद्ध भावी। सम्मदि सम्भवो :: 139
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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