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________________ विवाद एवं निश्चय मत की सामंजस्य स्थापित करके सुधर्म, रयण और अजित मुनि हुए। देवमति, अनंतमति और अजितमति आर्यिका दीक्षा को प्राप्त हुई। दाहोद-चाउम्मासो वेदब्भ-पच्छ-मुणिसंघ-पदेस-मज्झे जो खंडवादु बडवाणि-पगच्छ-रण्णे सिंहो सुणाद-रिसहो भयभीद-जादो सूरीणरो हुणरसिंह तवे विरामं ॥7॥ विदर्भ के पश्चात् मुनिसंघ मध्य प्रदेश में प्रवेश कर जाता है जो खंडवा बड़वानी की ओर अरण्य में विचरण करता है तभी सिंहनाद होता, सामने सिंहराज और नरराज रूपी सिंह के तप से वह अन्यत्र चला जाता है। 8 इक्कासि-बासचदु पच्छ-दहोद-खेत्तं पत्तेदि संघ-जिण-दसण-खेत्त जादं। दो रज्ज सीम-पडि दाहिद-सूरि-तावी सो सिंह णिक्किडिद-वे असि-वास-माहो॥8॥ 1981 के चातुर्मास के पश्चात् (बड़वानी के पश्चात्) संघ विविध क्षेत्रों के जिन दर्शन करता हुआ दाहोद क्षेत्र को प्राप्त हुआ। यह दाहोद दो राज्य सीमा के कारण दाहोद भी तपस्वी सूरी युक्त हुआ। यहाँ 1982 में आचार्य सन्मतिसागर द्वारा सिंहनिक्रीडित तप किया चातुर्मास काल में ही। आहार-एग-उववास इगो वि वे वि सो पंच दस्स-उववास-कमादु खीणं। जाएदि सिंहणिकिकीडिद ताव तावं तत्तो इमो तण-तण व्व हु खीण जादि ॥9॥ सिंहनिष्क्रीडित तप के ताप करते हुए क्रम से एक आहार एक उपवास, एक आहार दो उपवास आदि के साथ पन्द्रह उपवास को प्राप्त हुए। ये आचार्य श्री इसी क्रम से एक आहार चौदह उपवास से एक आहार एवं एक उपवास की ओर अग्रसर हो जाते तो यह क्षीण शरीरी तृण की तरह क्षीण शरीर वाले हो जाते हैं। 134 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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