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________________ 25 पण्णी गणी रुवग-लित्त-सदा हु णम्मी आगच्छिदूण हु णएंति असीरवाद। एगो धणी वि धणि सुक्कति-साहसंच विक्केज्ज लक्ख मम खंडगिरि णएज्जा ॥25॥ पण्यगणी (व्यापारी) सदा रुपए में लीन नमीभूत यहाँ आकार शुभाशीष लेते, एक धनी सूखे धनिया का व्यापारी तीस हजार के धनिए को एक लाख की कामना का निवेदन करता। खंडगिरि-उदयगिरि की यात्रा का वचन देकर। 26 आसीस-पत्त-ववसायि-गदो हु तत्थ लाहं तिगुण्ण-अणुपत्त-मुणंत-अज्ज। णो दामि लोभवसदो णो लहेदि मोल्लं वाए मणे गुरुवरं पडिओ उपेक्खो ॥26॥ आशीष प्राप्त व्यवसायी पहले तिगुने लाभ को प्राप्त होता, जैसे ही यात्रा या लाभ देने के प्रति उपेक्षा करता वैसे ही लोभ के कारण उसे उसमें मूल्य भी नहीं मिलता है। 27 लाहो जधा तध हु लोह हवे हु जस्सिं कोडीइ पत्तय इमो मण-तोस-णत्थि। अट्ठण्हिगे परमसिद्ध पहुँच झाणं झाणे हु सूदग मणे ण हु सिद्धचक्कं ॥27॥ जहाँ लाभ है, वहाँ लोभ होता है। जिसमें कोटी के प्राप्ति का मानस हो वह कभी भी मन में संतोष नहीं ला सकता है। अष्टाहिनका के पर्व में सिद्धचक्र प्रभु के ध्यान में सूतक आ जाए, फिर मन में सूतक सूतक हो-तब उसका लाभ नहीं होता है। 28 आराहए सिहरचंद मणीसि देसं देज्जा जणाण समए हु असुद्धि जादे। कासाय-सुत्त विसएहि विहिं च सम्म कुव्वेज्ज जे हु परमं अणुलाहएंति ॥28॥ पं. शिखरचंद जी (खरखरी वाले) मनीषि विद्वान थे। उन्होंने लोगों को 118 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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