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________________ पच्चीस-वीर-परिमुत्ति-महुच्छवे हु पच्चत्तरे इग दुबे चदुमास-वासं॥21॥ कोलकत्ता नगरी व्यवसाय का केन्द्र है। यह भव्यातिभव्य है, एक करोड़ मानवों का स्थल वीर निर्वाण 2500 के महोत्सव में संलग्ग थी, तब 1975 एवं 1976 में यहाँ चातुर्मास वर्षावास को प्राप्त हुए। 22 अस्सि थले विजय अज्जिग हिंदि भासं पुण्णं किदी भगवदीइ महा हु वीरे। जाए विमोचण परं गुरु आसीसेज्जा अण्णं च चाग किद सम्मदि सम्मझाणं॥22॥ इस स्थल पर विजयमति अर्यिका की हिन्दी भाष्य युक्त कृति भगवती आराधना पूर्ण हुई। यहाँ पर महावीर निर्वाण महोत्सव पर इसका विमोचन गुरु आशीष से होता है। यहाँ पर आचार्य सन्मतिसागर अन्न का त्याग कर सम्यक् ध्यान की ओर अपनी दृष्टि करते हैं। 23 एसो वि चाग-तव-साहण-झाण-मूलो पंचारसी हु परिचागि-वदे दिढी वि। आदंकि-माणुज-पहे सयला हु ते हु णिव्वाह-भत्त-असणं णयएंति तं च ॥23॥ पंच रस त्यागी, व्रत में दृढ़ि ये आचार्य सन्मतिसागर अन्न त्याग को तप साधना एवं ध्यान का मूल मानते हैं। वे आतंक स्थल पर आहारार्थ जाते हैं तब आतंकी मनुज के पथ में वे ही भक्त असन (आहार विधि) में निर्वाध उन्हें ले जाते हैं। 24 अप्पेण के वि ण वरो भय-तंक जुत्तो एदे वि माणुज-मणी मणसे ण दंडी। पादेसु णम्म भय-मुत्त-सुसंत सव्वे। आसीसएंति णयएंति किवं च दिट्ठि ॥24॥ आत्मा से कोई भी अच्छा या आतंकी, भय करने वाला नहीं होता है। ये भी मनुष्य रूपी मणि (मानसरोवर के मानुष हंस) मन में आतंकी नहीं, तभी तो इनके पैरों में नत सुशान्त सभी निर्भय बने आशीष लेते तब वे आचार्य की कृपा दृष्टि को प्राप्त होते हैं। सम्मदि सम्भवो :: 117
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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