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________________ दर्शनार्थी मानवों के लिए आतंकित करते हैं, पर आ. महावीरकीर्ति से सम्बोधित अशान्त लोग शान्त नहीं होते हैं। 25 अस्सिं विधम्मिमणुजा कुणएंति रोसं तेसिं पसंत पुलिसा समएंति अत्थ। बंहा हु पारण दिवं मणुएंति सूरी तावत्थली-वि धरसेण-सु-पुष्फ-भूतिं ॥25॥ यहाँ पर विधर्मीजन रोष (आक्रोश) करते हैं, उनके रोष को पुलिस शान्त करती है। यहाँ ब्रह्म (आदिब्रह्म ऋषभ) का पारणादिवस मनाते हैं। आचार्य महावीरकीर्ति धरसेन की तपस्थली और पुष्पदंत भूतवलि के शिक्षा स्थान को देखते हैं 26 तित्थो सिरोमणि गणिं अणुरोचदे हु तित्थाण वास-उववास तवो वि अस्सिं सो सत्तरेग चदुमास गिरे कुणेदि वंदेज्ज तत्थ उवसग्ग सहंत सव्वे ॥26॥ तीर्थ शिरोमणि आचार्य को तीर्थ क्षेत्र वास, उपवास, तप आदि रुचते हैं इसलिए सन् 1971 के चातुर्मास के लिए गिरनार क्षेत्र में रुक जाते हैं। यहाँ उपसर्ग सहन करते हुए सिद्धों की वंदना करते हैं। गिरणारादु विहरणं 27 सज्झाय झाण-तव णि? इमो हु संघो संते समाहि कुण खुल्लग-एग-पच्छा पत्तेदि सोणगढ-धम्मथलं च काणिं आहार-पच्छ अणुचारि इमो हु संघो॥27॥ यह संघ स्वाध्याय, ध्यान एवं तप निष्ठ साधुओं का संघ था। यहाँ एक क्षुल्लक की समाधि हुई, इसके पश्चात् कानजी भाई के धर्मस्थल सोनगढ़ को गये वहाँ से संघ आहार के पश्चात् विहार कर देता है। सम्मदि सम्भवो :: 107
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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